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आगम साहित्य और उपासकदशांग
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(च) आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल व छेद के रूप में माना जाता है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में "अन्यथा हि अनिबद्धमंगोपांगशः समुद्रप्रतरणवदुरध्यवसेयं स्यात्" कहकर अंग के साथ उपांग शब्द का भी प्रयोग किया है । " प्रभावक चरित्र में, जो वि. संवत् १३३४ का रचित है, सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल व छेद के रूप में आगमों का वर्गीकरण देखने को मिलता है । मूल रूप से जो बारह अंग ग्रन्थ हैं उन्हीं के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए उपांगों की रचना हुई है ऐसा माना जाता है ।
मूलसूत्रों के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों की अलग-अलग धारणाएँ हैं । समयसुन्दरगणि ने दशवेकालिक, ओघनिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति व उत्तराध्ययन को मूल सूत्र माने हैं। डॉ० सारपेन्टियर, डॉ० विन्टरनित्ज और डॉ० ग्यारीनो ने उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवेकालिक व पिण्डनिर्युक्ति को मूल सूत्र माना है । डॉ० शुब्रिंग ने उत्तराध्ययन, दशवेकालिक, आवश्यक, पिण्डनिर्युक्ति व ओघनियुक्ति को मूलसूत्र माना । "
स्थानकवासी व तेरापन्थ सम्प्रदाय उत्तराध्ययन, दशवेकालिक, नन्दी व अनुयोगद्वार को मूल सूत्र मानते हैं ।
छेद सूत्रों का प्रथम उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में हुआ है। समाचारी शतक में समयसुन्दरगणि ने दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ,
१. तत्त्वार्थ भाष्य, १/२०
२. ततश्चतुविधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया । ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्य ग्रन्थच्छेदकृतागमः ॥
- प्रभावकचरित, दूसरा आर्यंरक्षित प्रबन्ध
३. “अङ्गार्थस्पष्टबोधविधायकानि उपांगानि ” – औपपातिक टीका
४. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि - जैन आगम साहित्य मनन व मीमासा, पृष्ठ २२
५. कापड़िया, एच० आर० ए हिस्ट्री ऑफ दो केनोनिकल लिट्रेचर आफ
दी जैन्स, पृ० ४४-४५
६. मेहता, डा० मोहन लाल - जैन दर्शन, पृष्ठ ८९
७. "जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसु ताणि चरणकरणाणुओगोत्ति कालियत्थे उवगयाणि" - आवश्यकनियुक्ति, ७७७
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