SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ उपासकदशांग : एक परिशीलन (ङ) आगम लेखन-परम्परा__लिपि का प्रादुर्भाव प्रागैतिहासिक काल में ही हो चुका था। प्रज्ञापनासूत्र में अठारह लिपियों का उल्लेख आता है।' भगवतीसूत्र में भी मंगलाचरण में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। अतः यह स्पष्ट है कि लेखन कला व सामग्री का विकास या अस्तित्व आगम लेखन से पूर्व ही था, किन्तु आगमों को लिखने की परम्परा न होकर कण्ठाग्र करने की परम्परा थी, जिसके कारणों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। यही परम्परा बौद्ध व वेदों के लिए भी थी इसी कारण इन तीनों में 'श्रुत' 'सुत्त' व 'श्रुति' शब्द प्राचीन ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है। ___आगमों को लिपिबद्ध करने का स्पष्ट उल्लेख देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के पूर्व प्राप्त नहीं होता है । पूर्व में लेखन की परम्परा नहीं होने से भी आगमों का विच्छेद नहीं हो जाय, एतदर्थ लेखन व पुस्तक रखने का विधान किया गया और बाद में आगम लिखे गये। इस प्रकार आगम लेखन की दृष्टि से ईसा की पांचवीं शताब्दी महत्त्वपूर्ण है । आगमों का वर्गीकरण एवं परिचय (क) सर्वप्रथम आगमों के भेद समवायांगसूत्र में प्राप्त होते हैं। वहीं पूर्वो की संख्या चौदह व अंगों की संख्या बारह बतलाई गई है। अभयदेववृत्ति के अनुसार द्वादशाङ्गी के पहले पूर्वसाहित्य निर्मित किया गया, इस कारण इनका नाम पूर्व पड़ा। अंग शब्द जैन परम्परा में आगम ग्रन्थों १. प्रज्ञापना, पद-१ २. "नमो बंभीए लिविए"-भगवतीसूत्र, मंगलाचरण ३. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि-जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृष्ठ ४२ ४. “कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छि त्ति । निमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवई ॥-दशवैकालिकचूणि, पृष्ठ २१ ५. "चउदस पुत्रा पण्णत्ता तंजहा"-समवायांग, समवाय, १४ ६. “दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ता तंजहा"--समवायांग, समवाय, १३६ ७. क. सर्वश्रु तात् पूर्वं क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वाऽदोभि चतुर्दश" -स्थानांगसूत्रवृत्ति, १०/१ ख. "प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वात्" . -समवायांगवृत्ति, पत्र १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy