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आगम साहित्य और उपासकदशांग
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एक आगम संकलन का प्रयास हुआ ।" जो 'नागार्जुनीय वाचना' के नाम से विख्यात है । इसका उल्लेख भद्रेश्वर रचित कहावली ग्रन्थ में मिलता है । चूणियों में भी नागार्जुन नाम से पाठान्तर मिलते । पण्णवणा जैसे अंगबाह्य सूत्रों में भी इस प्रकार के पाठान्तरों का निर्देश है । आचार्य देववाचक ने भी भावपूर्ण शब्दों में नागार्जुन की स्तुति की है । *
पंचम वाचना - वीर निर्वाण के ९८० वर्षों के बाद लोगों की स्मृति पहले से दुर्बल हो गयी, अतः उस विशाल ज्ञान भण्डार को स्मृति में रखना कठिन हो गया । अतः वीर निर्वाण ९८० या ९९३ ( सन् ४५४ या ४६६ ) में देवधिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमणसंघ एकत्रित हुआ और स्मृति में शेष सभी आगमों को संकलित किया और साथ ही साथ पुस्तकारूढ़ भी कर दिया गया । यह पुस्तक रूप में लिखने का प्रथम प्रयास था । कहीं-कहीं पर यह उल्लेख भी आता है कि आचार्य स्कन्दिल व नागार्जुन के समय ही आगम पुस्तकारूढ़ कर दिये गये थे ।
वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं वे देवद्विगणि क्षमाश्रमण की वाचना के हैं और उसके बाद उनमें परिवर्तन व परिवर्द्धन नहीं हुआ, ऐसा माना जाता है । किन्तु शोध की दृष्टि कुछ ऐसे स्थल भी मिले हैं जो आगमों में इसके बाद भी प्रक्षिप्त किये गये हैं । उदाहरण के रूप में वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का उल्लेख नन्दी चूर्णि के पूर्व कहीं भी नहीं मिलता है । अनुयोगद्वारसूत्र में द्रव्यश्रुत व भावश्रुत का उल्लेख है, यहाँ पुस्तक लिखित श्रुत को द्रव्यश्रुत माना गया है । "
१. जैन, डा० हीरालाल - भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ५५ २. मालवणिया, पं० दलसुख - जैन दर्शन का आदिकाल, पृष्ठ ७
३. वही, पृष्ठ ७
४. क. नन्दीसूत्र, गाथा ३५ ख. योगशास्त्र, प्रकाश ३, पृष्ठ २०७ ५. स्थानांगसूत्र, (सं० ) मधुकर मुनि, प्रस्तावना, पृष्ठ २७
६. " जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्न- प्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचायं प्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम्
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- योगशास्त्र, प्रकाश ३, पृष्ठ २०७
७. दशवैकालिक भूमिका - आचार्य तुलसी, पृष्ठ २७
८. " से किं तं - दव्वसुअं ? पत्तयपोत्थयलिहिअं”-अनुयोगद्वारसूत्र
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