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________________ १९४ उपासकदशांग : एक परिशीलन क्षुल्लक दो वस्त्र धारण करता है । केश लुञ्चन या मुण्डन भी यथाशक्ति करा सकता है । भिक्षा विभिन्न घरों से मांगकर करता है। ऐलक कमण्डल और मोरपिच्छि रखता है। एकमात्र लंगोटी धारण करता है बाकी सभी आचरण दिगम्बर मुनि के सदृश ही होता है । इस प्रकार इन प्रतिमाओं को, जो कि मनुष्य के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास को सीढियां भी हैं, जिन्हें व्यक्ति क्रमशः शक्ति के अनुसार ग्रहण करता चला जाता है और वह साधु जीवन के नजदीक पहुँच जाता है क्योंकि विचारों की शुद्धता एवं आचरण की निष्ठा ही व्यक्ति की उन्नति के मार्ग में सहायक होती हैं। उपरोक्त ग्यारह प्रतिमाओं के अतिरिक्त भी कुछ नियम ऐसे हैं जो श्रावकाचार में परवर्ती काल-प्रभाव से जडते गये। उपासकदशांगसूत्र में उनका उल्लेख नहीं पाया जाता है कि हम श्रावकाचार का वर्णन कर रहे हैं अतः संकेतात्मक रूप से उनका नामोल्लेख करना आवश्यक है। इन नियमों में मार्गानुसारी के पैंतीस गुण, षडावश्यक, षट् कर्म, चार विश्राम, बारह भावनाएं एवं दस धर्म मुख्य हैं । इस तरह ग्यारह प्रतिमाएं व्यक्ति-जीवन के चारित्रिक विकास में सहयोगी हैं। क्रम से एक के बाद एक प्रतिमा ग्रहण करते रहने से व्यक्ति का आचार उन्नत एवं विकासशील बनता चला जाता है और ग्यारहवीं प्रतिमा तक पहुँचते-पहुंचते श्रावक के आचरण में इतनी पवित्रता आ जाती है कि वह श्रमणतुल्य हो जाता है । जैन आचार के सामान्य नियमों के परिपालन से जीवन में अनेक सद्गुणों का समावेश होता चला जाता है। षडावश्यकों के नियमित क्रियान्विति होने से दैनिक जीवन धर्म से अनुप्राणित होता है। दिन भर में किये गये पापों की आलोचना करने का अवसर मिलता है और कर्मों की निर्जरा होने से श्रेष्ठ आचार का पालक बनता है । दसधर्मों एवं बारह भावनाओं से मानवीय मूल्यों की जीवन में वृद्धि होती है। जैन धर्म भावनाप्रधान धर्म होने से एवं उत्तम चिन्तन-मनन से सिद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था की संप्राप्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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