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श्रावकाचार
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मास है ।' दशाश्रुतस्कन्ध में कहा है कि श्रमणभूत श्रावक उस्तरे से सिर का मुंडन कराता है । साधु का आचार और भण्डोपकरण धारण कर अनगार धर्म का काय से स्पर्श करता हुआ विचरता है । श्रसजीवों की रक्षा के लिए पैरों को संकुचित कर लेता है । केवल मात्र जातिवर्ग से मोह नहीं छूटने के कारण भिक्षावृत्ति उन्हीं के घर जाकर करता है । " दिगम्बर परम्परा में इसको उत्कृष्ट श्रावक या उद्दिट्ठ त्याग कहा है । रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा है कि जो वन में जाकर मुनिरूप में रहकर भिक्षाग्रहण करता है, एक वस्त्रखण्ड को धारण करता है, वह उत्कृष्टभावक कहलाता है | कार्तिकेयानुप्रेक्षा और अमितगतिश्रावकाचार में कहा है कि जो गृह छोड़कर नवकोटि से विशुद्ध आहार करता है वह उद्दिष्टत्यागी श्रावक है । उपासकाध्ययन में बताया है कि जो अपने भोजन के लिए किसी प्रकार की अनुमति नहीं देता है वह उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी है ।" वसुनन्दिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत, लाटीसंहिता आदि ने इस प्रतिमा के दो भेद किए हैं - एक क्षुल्लक ओर दूसरा ऐलक ।
१. " खुरमुण्डो लोएण व रयहरणं ओग्गहं च धेत्तणं । समभूओ विहरइ धम्मं कारण फासेन्तो ॥ एवं उक्कोसेणं एक्कारसमास जाव विहरेइ । एक्काहाइपरेणं एवं राव्वत्थ पाए ||"
२.
- उपासक दशांगसूत्रटीका - अभयदेव, " से णं खुरमुंडए वा लुंचसिरए वा गहियायार - भंडग - नेवत्थे । जारिसे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे पण्णत्ते ।
केवलं से नाय पेज्जबंधणे अवोच्छित भवइ || "
३. " गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य ।
४. क. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ९०
"
भैक्षाशनस्तपस्यन्नुकृष्टश्चेलखण्डधरः ” – रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १४७
ख. अमितगतिश्रावकाचार, ७/७७
उपासकाध्ययन, ८२२
क.
वसुनन्दिश्रावकाचार, ३०१ ख. सागारधर्मामृत, ७/३७-३८
ग. लाटीसंहिता, ५६/६३
१३
- दशाश्रुतस्कन्ध, ६/२७/११
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पृष्ठ ६७-६८
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