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________________ १९० उपासकदशांग : एक परिशीलन है।' कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बाहरी और भीतरी परिग्रह को पाप मानकर छोड़ देने को परिग्रहविरत कहा है।' उपासकाध्ययन में समस्त परिग्रह के त्याग को परिग्रहविरत प्रतिमा बताया है । ३ चारित्रसार में क्रोधादि कषायों को उत्पन्न करने वाला हिंसादि पंचपापों की जन्मभूमि परिग्रह को धर्म-शुक्लध्यान से दूर करने वाला मानकर दसों परिग्रह से विरत होने को परिग्रह त्यागी श्रावक परिभाषित किया गया है। अमितगतिश्रावकाचार में कहा है कि ये परिग्रह रक्षण, उपार्जन, विनाश आदि के द्वारा जीवों को अतिभयंकर दुःख देता है, ऐसा समझ कर परिग्रह के त्यागी को अपरिग्रही कहा जाता है। वसनन्दिश्रावकाचार में कहा है कि जो वस्त्र मात्र परिग्रह को रखकर शेष परिग्रह को छोड़ देता है और उस वस्त्र में भी ममत्व नहीं रखता है, वह परिग्रही विरत श्रावक है । प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में क्षेत्र, वास्तु, धन्य-धान्य, दास, पशु, आसन, शयन, कुप्य, भांड इन दस परिग्रहों में केवल त्यागी अपरिग्रही श्रावक माना है।' लाटीसंहिता में सोना-चांदी आदि सभी को छोड़कर अपने शरीर के लिए वस्त्र एवं अन्य आवश्यक सामान के अतिरिक्त सभी का त्याग करने वाला परिग्रहविरता श्रावक कहा है। इस तरह प्रेष्य त्याग या परिग्रह त्याग में व्यक्ति दो करण तीन योगों से समस्त सांसारिक आरम्भ-परिग्रहों का त्याग कर देता है। वस्त्र केवल शरीर आच्छादन के लिए या लज्जा निवारण के लिये है, की १. "बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः" ॥ रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १४५ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ८६ ३. उपासकाध्ययन, ८२२ ४. चारित्रसार, (श्रावकाचारसंग्रह) पृष्ठ २५६ ५. अमितगतिश्रावकाचार, ७/७५ ६. क. वसुनन्दिश्रावकाचार, २९९ ख. सागारधर्मामत, ७/२३ ७. प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, २३/१२२-१२३ ८. लाटीसंहिता ६/३९-४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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