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________________ श्रावकाचार १८९ इस प्रकार आरम्भ-त्याग के इस नियम में व्यक्ति सभी प्रकार से सांसारिक आरम्भों का त्याग करता है, समस्त पारिवारिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है । वह पुत्रादि को परामर्श हेतु आगार रखता है एवं स्वामित्व का व्यावहारिक तौर पर निर्वाह करता है। यह त्याग गृहस्थ द्वारा एक करण तीन योग से किया जाता है। किसी प्राणी की हिंसा का विचार मानसिक आरम्भ है । हिंसा के लिए प्राणी को रूक्षता से कहना वाचिक आरम्भ है। शस्त्रादि से शारीरिक क्रियाओं द्वारा हनन करना कायिक आरम्भ है।' ९. भृतकप्रेष्यारम्भवर्जन प्रतिमा-- इसमें व्यक्ति भृतक यानी नौकरों से भी आरम्भ नहीं करवाता है, स्वयं तो वेसे भी नहीं करता है, परन्तु इसमें अनुमति देने का त्याग नहीं होता । उपासकदशांगसूत्रटीका में कहा है कि धारक पूर्वोक्त आठों प्रतिमाओं का पालन करता है। आरम्भ का भी परित्याग करता है; किन्तु अपने निमित्त बनाये भोजन को ग्रहण कर लेता है। इसका काल जघन्य एक, दो, तीन दिन और उत्कृष्ट नौ मास है। दशाश्रुतस्कन्ध में कहा है कि इसमें गृहस्थ दूसरों से भी आरम्भ नहीं करवाता परन्तु स्वनिर्मित आहार को ग्रहण करता है। यह प्रतिमा कम से कम एक, दो, तीन दिन और उत्कृष्ट नौ मास की होती है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में धनधान्यादि दसों प्रकार के परिग्रह को छोड़कर एवं मायाचार को भी छोड़कर जो परम सन्तोष धारण करता है, वह परिग्रहविरत श्रावक कहलाता १. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि-जैन आचार-सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ३५३ २. “पेसेहिं आरम्भं सावज्ज कारवेइ नो गुरुयं । पुन्वोइयगुणजुत्तो नव मासा जाव विहिगाउं॥" .. __ --उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृष्ठ ६७ ३. "पेसारंभे से परिणाए भवइ । उद्दिट्ट भत्ते से अपरिण्णाए भवइ । से णं एया रुवेणं विहारेणं विहरमाणे । जहण्णणं एगाहं वा दुआई वा तिआहं वा जाव-उक्कोसेणं नव मासे विहरेज्जा" -दशाश्रुतस्कन्ध, ६/२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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