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उपासक दशांग : एक परिशीलन
सिक, वाचिक एवं कायिक तीनों ही आरम्भ का स्वयं त्याग करता है, उपासकदशांगसूत्रटीका में कहा है कि जो सचित्त आहार का त्याग करता है, स्वयं आरम्भ व हिंसा नहीं करता है किन्तु आजीविका के लिए दूसरों से कराने का त्याग नहीं करता है वहाँ स्वयं आरम्भवर्जन प्रतिमा कहलाती है । इसकी काल मर्यादा एक-दो या तीन दिन और उत्कृष्ट आठ मास है।' दशाश्रुतस्कन्ध में भी यही स्वरूप प्रतिपादित किया है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में हिंसा के कारणभूत सेवा, कृषि तथा वाणिज्य आदि आरंभ से निवृत्त होने को आरंभत्यागप्रतिमा कहा है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, चारित्रसार, अमितगतिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में रत्नकरण्डकश्रावकाचार का ही अनुसरण किया है, साथ ही इनके त्याग को मन, वचन, काय से नहीं करना भी जोड़ दिया है । उपासकाध्ययन में खेती आदि नहीं करना आरंभत्याग बताया है । वसुनन्दिश्रावकाचार में कहा है कि पूर्व में जो थोड़ा बहुत गृह संबंधी आरंभ होता है, उसे सदा के लिए त्याग करता है, वही आठवाँ श्रावक है। लाटीसंहिता में जो जल आदि सचित्त द्रव्यों को अपने हाथ से स्पर्श भी नहीं करता है, ऐसे श्रावक को आरंभत्यागो कहा है ।
१. " वज्जइ सयमारम्भ सावज्जं कारवेइ पेसेहि ।
वित्तिनिमित्तं पुन्वय गुणजुत्तो अट्ठ जा मासा ॥
- उपासकदशांगसूत्रटीका - अभयदेव, पृष्ठ ६७ २. "आरंभे से परिण्णाए भवइ । पेसारम्भ अपरिण्णाए भवइ । से णं एयारुवेणं विहारेणं विहरमाणे । जाव जहणेणं एगाहं वा दुआहं वा तिआहं वा जाव उक्कोसेणं अट्ठमासे विहरेज्जा"
दशाश्रुतस्कन्ध, ६/२४
३. "सेवा कृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति ।
प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भनिवृत्तः ॥” – रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १४४ ४. क. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ८५ ख. चारित्रसार (श्रावकाचार संग्रह ) पृष्ठ २५६ ग अमितगतिश्रावकाचार, ६/७४
घ. सागारधर्मामृत, ७/२१
ङ. प्रश्नोत्तरश्रावकाचार,
२३/९९
५. उपासकाध्ययन, ८२१ ६. वसुनन्दिश्रावकाचार, २९८ ७. लाटीसंहिता, ६/३२-३३
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