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श्रावकाचार
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है।' वसुनन्दिश्रावकाचार और गुणभूषणश्रावकाचार में अप्रासुक जल का त्याग भी सम्मिलित है। उपासकाध्ययन में आठवीं प्रतिमा का नाम सचित्तत्याग किया है। यहाँ सचित्त वस्तु के खाने के त्याग को सचित्त त्याग प्रतिमा माना है। अमितगतिश्रावकाचार में जिनवचनों का वेत्ता दयालुचित्त पुरुष किसी सचित्त वस्तु को नहीं खाता है वह साधारण धर्म का पोषक एवं कषायों का विमोचक सचित्तत्यागप्रतिमाधारी कहा गया है।३ सागारधर्मामृत में चार प्रतिमाओं का निर्दोष पालक, हरे अंकुर, हरे बोज, सचित्त जल और नमक नहीं खाने वाला सचित्त त्यागी श्रावक माना गया है। लाटोसंहिता में कहा है कि कभी भी सचित्त वस्तु को नहीं खाना चाहिए। यहाँ बताया है कि यह त्याग खाने का है, स्पर्श करने का त्याग नहीं होता, जिससे वह अप्रासुक को प्रासुक करके खा सकता है।
इस प्रकार सचित्तत्याग प्रतिमा में व्यक्ति हरे कन्द, मूल, फलादि का सर्वथा त्याग कर देता है। यह त्याग जीवनभर के लिए हो सकता है । इसमें व्यक्ति को नमक और जल तक का भी त्यागी होना आवश्यक है । हाँ ! छूट के रूप में यह है कि वह सचित्त चीजों को विभिन्न संयोगों से अचित्त बनाकर खा सकता हैं । ८. स्वयंआरम्भवर्जनप्रतिमा
इस प्रतिमा में गृहस्थ द्वारा समस्त हिंसात्मक क्रियाओं का तथा मान
१. क. "मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानियोऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥"
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १४१ ख. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ७८-७९ ग. चारित्रसार, (श्रावकाचार संग्रह), पृष्ठ २५५ घ. वसुनन्दि-श्रावकाचार, २९५
ङ. गुणभूषणश्रावकाचार, ३/७० २. उपासकाध्ययन, ८२२ ३. अमितगतिश्रावकाचार, ७/७१ ४. सागारधर्मामृत, ७/८ ५. लाटीसंहिता, ६/१६-१७
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