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आगम साहित्य और उपासकदशांग
त्याग का उपदेश सन्निहित हैं । इन धार्मिक उपदेशों के अलावा भी दर्शन, नीति, संस्कृति, सभ्यता, भूगोल, खनिज, गणित, इतिहास, आयुर्वेद, नाटक आदि जीवन के हर पहलू को छूने वाले प्रसंग आगम साहित्य में प्रभूत परिमाण में मिल जाते हैं ।
आगमों की मौखिक परम्परा, विच्छेद-क्रम, वाचनाएँ एवं लेखन परम्परा
(क) आगमों की मौखिक परम्परा
आज से २५०० वर्ष व उससे भी पहले से जिज्ञासुजन अपने-अपने धर्म - शास्त्रों को विनय व आदरपूर्वक अपने गुरुओं से श्रवण करते थे और इस प्रकार श्रवण किये गये शास्त्रों को कण्ठाग्र करते एवं उन पाठों को स्वाध्याय के माध्यम से स्मरण रखते थे । धर्मशास्त्रों की भाषा का उच्चारण शुद्ध हो, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था । कहीं मात्रा, अनुस्वार, विसर्ग व्यर्थं प्रविष्ठ नहीं हो तथा न उनका लोप हो, इसका सावधानीपूर्वक ध्यान रखा जाता था ।
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जैन - परम्परा में सूत्रों की पद संख्या का खास विधान था। सूत्रों का उच्चारण किस प्रकार किया जाय व उच्चारण करते समय किन-किन दोषों से दूर रहना चाहिए, इसकी भी पूरी-पूरी जानकारी रखी जाती थी ।
इस प्रकार विशुद्ध रीति से संचित श्रुत-साहित्य को गुरु अपने शिष्यों को सौंपते व शिष्य पुनः उस ज्ञान को अपने प्रशिष्यों को सौंपते थे । इस तरह यह धर्मशास्त्र स्मृति द्वारा ही सुरक्षित रखे जाते थे । वर्तमान में इन शास्त्रों के लिए श्रुत, स्मृति व श्रुति आदि शब्दों का उल्लेख इसका ज्वलंत प्रमाण है । जैसे ब्राह्मण-परम्परा में पूर्व के शास्त्रों को श्रुति व उसके बाद के शास्त्रों को स्मृति कहा जाता है, वैसे ही श्रमण परम्परा में मुख्य प्राचीन शास्त्रों को 'श्रुत' कहा जाता है । आचारांग के 'सुयं मे' शब्द से स्पष्ट है कि ये शास्त्र सुने हुए हैं और सुनते-सुनते चलते आये हैं ।'
(ख) मौखिक - परम्परा ही क्यों ?
प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ और लिपिशास्त्री महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीरा
१. आचारांगसूत्र - ( सं० ) मुनि मधुकर, सूत्र १ / १
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