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उपासक दशांग : एक परिशीलन
चन्द ओझा का मत है कि ताड़पत्र, कागज, स्याही, लेखनो आदि का परिचय व प्रयोग हमारे पूर्वजों को प्राचीन काल से ही ज्ञात था ।" जैन शास्त्रों को लिखने का सामर्थ्य भी जैनाचार्यों में था, फिर भी स्मरण रखने का मानसिक भार क्यों उठाया गया ? इसके उत्तर में यही कहा जाता है कि इस लेखन भार को न उठाने में जैन साधुओं की आचारचर्या व साधना बाधक रही है । विशेष रूप से निम्न पहलू द्रष्टव्य हैं :
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१. अहिंसा का पालन - जैन साधक मन, वचन, काय द्वारा हिंसा न करने, न करवाने व अनुमोदन न करने की प्रतिज्ञा करते हैं । आचारांग आदि साधुचर्या के मूल ग्रन्थों से मालूम होता है कि साधु ऐसी वस्तु स्वीकार नहीं करता जिसमें तनिक भी हिंसा की संभावना होती हो ।
२. परिग्रह की संभावना - जैन साधक के हिंसा एवं परिग्रह की संभावना होने से निर्वाण में बाधाएँ उपस्थित होती है इस कारण लेखन की उपेक्षा की । बृहत्कल्पसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि पुस्तक रखने से प्रायश्चित्त आता है ।
३. आन्तरिक तप - पुस्तकों के रहने से श्रमण धर्मवचनों का स्वाध्याय कार्य नहीं करते । धर्मवचनों को कंठस्थ कर उनका बार-बार स्वाध्याय एक तप है, पुस्तक रखने से यह तप मन्द पड़ने लग जाता है और साधक शुद्ध-अशुद्ध बोलकर एक औपचारिकता मात्र पूरा करने लग जाता है, अतः यह उचित नहीं माना गया ।
(ग) आगमों का विच्छेद-क्रम
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महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् श्रमणों के क्रिया-कलापों में आचारविचारों में निष्क्रियता आने लगी । जैन धर्म सम्प्रदायों में विभाजित होकर अचेलक व सचेलक परम्पराओं में बट गया । श्रमण अपरिग्रह को छोड़ कर परिग्रह धारण करने लगे । बीच-बीच में प्रकृति के प्रकोप के कारण भी धर्मशास्त्रों का यथावत् स्वाध्याय करना कठिन होता गया । इस कारण आगम- विच्छेद का क्रम शुरू हुआ । इस आगम-विच्छेद के बारे में दो मत प्रचलित हैं । प्रथम के अनुसार श्रुतधारक ही लुप्त होने लगे ।
१. ओझा, गौरीशंकर हीराचन्द - भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृष्ठ १ - १६ २. दोशी, बेचरदास - जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग १, पृष्ठ ६-७ ३. नन्दी चूर्णि पृष्ठ ८
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