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स्कन्ध में कहा है कि दिन एवं रात्रि में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, परन्तु सचित्त का परित्यागी नहीं होता । यह कम से कम एक-दो दिन और उत्कृष्ट पाँच मास तक पालन योग्य नियम है ।' दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मचर्य प्रतिमा को सातवीं प्रतिमा माना है । इसके स्वरूप को बताते हुए रत्नकरण्डकश्रावकाचार में मल का बीज, मल का आधार, मल को बहाने वाला, दुर्गन्ध से युक्त तथा वीभत्स आकार वाले स्त्री के अंगों को देखकर स्त्री सेवन के सर्वथा त्याग को ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहा है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मन, वचन, काय से सभी प्रकार की स्त्रियों की अभिलाषा नहीं करना, ब्रह्मचर्य प्रतिमा माना है । चारित्रसार में चामुण्डाचार्य ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार का ही अनुसरण किया है । उपासकाध्ययन, वसुनन्दिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत और लाटोसंहिता में मन, वचन, काय द्वारा कृत, कारित और अनुमोदन से स्त्री सेवन के त्याग को ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहा है । " अमितगतिश्रावकाचार में बताया गया है कि विषयसेवन से विरक्तचित्त पुरुष, स्त्री की गुणरूपी रत्नों को चुराने वाला मानकर मन, वचन व काय से उसका सेवन नहीं करता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारीश्रावक होता है । इस प्रकार स्त्री सेवन का पूर्णरूप से त्यागी ही ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक होता है ।
श्रावकाचार
१. ' से णं असिणाणए, वियडभोई मउलिकडे दिया वा राओ वा बंभयारी सचित्ताहारे से अपरिण्णाए भवइ । सेगं एयारुवेणं विहारेणं विहरमाणेजहणं गां वा दुआहं वा तिआहं वा जाव उक्कोसेणं छम्मास विहरेज्जा" - दशाश्रुतस्कन्ध, ६/२२
२. " मलबीजं मलयोनि गलन्मल पूतिगन्धि वीभत्सम् । पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥
३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ८३
४. चारित्रसार (श्रावकाचारसंग्रह),
५. क. उपासकाध्ययन, ८२१ ख. वसुनन्दिश्रावकाचार, २९७ ग. सागारधर्मामृत, ७/१६ घ. लाटीसंहिता, ६/२५
६. अमितगतिश्रावकाचार, ७३
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- रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १४३
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