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उपासकदशांग : एक परिशीलन
अमावस्या के दिन परिपूर्ण पोषध व्रत का पालन करता है, किन्तु एक रात्रि को उपासकप्रतिमा का पालन नहीं करता है वह पौषध प्रतिमाधारी होता है।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार, चारित्रसार एवं अमितगतिश्रावकाचार में प्रत्येक मास के चारों ही पर्वदिनों में अपनी शक्ति के अनुसार पौषध को नियमपूर्वक करना पौषध प्रतिमा कहा है ।२ कार्तिकेयानप्रेक्षा और वसुनन्दिश्रावकाचार में बताया गया है कि सप्तमी एवं त्रयोदशी के दिन अपराह्न के समय जिनमंदिर में जाकर चारों आहारों का त्याग कर, उपवास करना तथा सर्वव्यापारों को छोड़कर रात्रि व्यतीत करना सबेरे वापस सब क्रियाओं को करके वह दिन शास्त्राभ्यास में व्यतीत करे । पूनः धर्मध्यान में रात बिताकर उषाकाल में सामायिक-वन्दना आदि करके यथावसर तोनों पात्रों को भोजन कराकर पीछे स्वयं भोजन करने वाले के पौषध प्रतिमा होतो है। सागारधर्मामृत में श्रावक को पूर्व तीन प्रतिमाओं में परिपक्वता के साथ जब तक पौषधोपवास व्रत रहता है तब तक साम्यभाव से च्युत नहीं होने का सामायिक प्रतिमाधारी कहा है। लाटोसंहिता में पौषधोपवास का अतिचार रहित पालन पौषध प्रतिमा कहा है।
इस प्रकार गृहस्थ अपने को आध्यात्मिक विकास में अग्रसर करने के लिए प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी व अमावस्या के दिन उपवास करता है एवं सन्ध्या को पौषध ग्रहण करता है। उस दिन वह सांसारिक
१. “से णं चउद्दसट्ठमुद्दिट्ठ पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालिता भवइ से णं एगराइयं उवासग पडिमं नो सम्मं अणुपालित्ता भवई"
दशाश्रुतस्कन्ध, ६/२० २. क. पर्वदिनेषु चतुष्वपि मासे-मासे स्वशक्तिमनिगुह्य ।। प्रोषध नियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशनः ।।
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १४० ख. चारित्रसार (श्रावकाचारसंग्रह), पृष्ठ २५५
ग. अमितगतिश्रावकाचार, ७/७० ३. क. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ७२-७५ ख. वसुनन्दिश्रावकाचार, २८१-२८९ ४. सागारधर्मामृत, ७/४ ५. लाटीसंहिता, ६/११-१२
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