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श्रावकाचार
१८१ ण्डकश्रावकाचार की तरह हो प्रतिमा का स्वरूप बताया है ।' अमितगतिश्रावकाचार में जो आतं व रौद्रध्यान से रहित है, समस्त कषायदोषों से मुक्त है तथा जो त्रिकाल सामायिक करता है, सामायिक में स्थित कहा गया है। वसुनन्दिश्रावकाचार में स्नानादि से शुद्ध होकर चैत्यालय या प्रतिमा सम्मुख या पवित्र स्थान में पूर्व या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनबिम्ब, जिन धर्म व पंच-परमेष्ठीको जो त्रिकाल वन्दना करता है, सामायिक प्रतिमाधारी कहा है । सागारधर्मामृत में उपासकदशांगटोका का ही अनुसरण किया है। लाटीसंहिता में पहली तथा दूसरी प्रतिमा के साथ सामायिक नामक व्रत अच्छी तरह पालन करना सामायिक प्रतिमा कहा है।
इस प्रकार सामायिक प्रतिमा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का सकारात्मक (विधेयक) रूप है। इसके सतत प्रयास से अभ्यासित होकर व्यक्ति आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। इसमें व्यक्ति सम्यकत्व तथा व्रतों का परिपालन करते हुए अपनी दैनिक क्रियाओं में कुछ आध्यात्मिक चिन्तन के लिए समय देता है, यह समय ही सामायिक कही जा सकती है । ४. पोषध प्रतिमा
प्रत्येक माह या पक्ष में गृहस्थ कुछ दिन ऐसे रखता है जिनमें वह सांसारिक झंझटों से मुक्त हो, आध्यात्मिकता की ओर हो लगा रहता है। उपासकदशांगसूत्रटीका में कहा है कि पूर्वोक्त प्रतिमाओं के साथ जो अष्टमो, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों पर प्रतिपूर्ण पोषधव्रत की आराधना करता है वह पौषधप्रतिमाधारी है, जिसका समय चार मास है ।' दशाश्रुतस्कन्ध में उपरोक्त तीनों प्रतिमाओं के पालन के साथ चतुर्दशी, अष्टमो, पूर्णमासी एवं १. चारित्रसार (श्रावकाचारसंग्रह), पृष्ठ २५५ २. अमितगतिश्रावकाचार, ७/६९ ३. वसुनन्दिश्रावकाचार, २७४-२७५ ४. सागारधर्मामृत, ७/१ ५. लाटीसंहिता, ६/३ ६. "पुग्वोदियपडिमा जुओ पालइ जो पोसहं तु सम्पुण्णं । अट्ठमि चउद्दसाइसु चउरो मासे चउत्थी सा ।
--उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृष्ठ ६६
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