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श्रावकाचार
१७९ व्रतों का निरतिचार पालन, अनुकम्पागुण से युक्त होना कहा है।' दशाश्रुतस्कन्ध में शीलव्रत, गुणवत, प्राणातिपातविरमण, प्रत्याख्यान और पौषध का सम्यक्परिपालन व्रत प्रतिमा है। इसमें सामायिक और देशावकाशिक का सम्यक् प्रतिपालक नहीं होता है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में माया, मिथ्यात्व और निदान इन शल्यों से रहित पांच अणुव्रतों एवं सातों शीलों को धारण करनेवाला व्रती श्रावक कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उपासकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगतिश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार और लाटीसंहिता में भी बारहव्रतों को अतिचार रहित परिपालन करने को व्रत प्रतिमा माना है।४ सागारधर्मामृत के अनुसार परिपूर्णसम्यकत्व और मूलगुण का धारक, शल्यरहित, इष्ट-अनिष्ट पदार्थों की इच्छा से रहित, निरतिचार उत्तरगुण को धारण करने वाला व्रतिक होता है।
इस प्रकार जब व्यक्ति विशुद्ध दृष्टि से युक्त होता है, तब वह चारित्र के विकास में भी आगे बढ़ने की आकांक्षा करने लगता हैं और इसी में वह अपनी शक्ति-अनुसार पांच अणुव्रतों, तीन गुणवतों, सामायिक एवं पौषध को छोड़कर शेष शिक्षाव्रतों का अतिचार-रहित पालन करता है।
१. "दंसणपडिमा जुत्तो पालेन्तोऽणुव्वए निरइयारे । अणुकम्पाइगुण जुओ जोवो इह होइ वयपडिमा ॥
-उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृष्ठ ६५ २. "तस्स णं बहुई सीलवय-गुणवय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं सम्म पट्टवित्ताई भवंति । से णं सामाइयं देसावगासियं नो सम्म अणुपालित्ता भवई"
-दशाश्रुतस्कन्ध, ६/१८ ३. "निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ वतिनां मतो वतिकः ॥
___-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ७/३ ४. क. कार्तिकेयानुप्रेक्षा,२९
ख. उपासकाध्ययन, ८२१ ग. चारित्रसार (श्रावकाचारसंग्रह) पृष्ठ २३८ । घ. अमितगतिश्रावकाचार, ७/६८ ङ. वसुनन्दि-श्रावकाचार, २०७
च. लाटीसंहिता, ७/२४५ ५. सागारधर्मामृत, ४/१
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