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________________ १७७ सुदेव और सुधर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा से हैं । उपासकदशांगसूत्र में आनन्दश्रावक ने प्रथम उपासकप्रतिमा को यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग एवं यथातथ्य शरीर के द्वारा स्वीकार किया, पालन किया, शोधन किया व आराधन किया ।" यथा श्रावकाचार "पढमं उवासगपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं, अहातच्चं सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ किट्टेइ आराहेइ " उपासक दशांगसूत्रटीका में चारित्र आदि शेषगुण नहीं होने पर भी सम्यक्दर्शन का शंका, कांक्षा आदि पांच दोषों से रहित होकर सम्यक् रूप से पालन करना दर्शन प्रतिमा कहा है । दशाश्रुतस्कन्ध में दर्शन प्रतिमा का स्वरूप इस प्रकार कहा है- "क्रियावादी मनुष्य सर्वधर्मरुचिवाला होता है, परन्तु शीलव्रत व गुणव्रतों को सम्यक् रूप से धारण नहीं करता है ।" ३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अतिचार रहित शुद्धसम्यक् दर्शन से युक्त, संसार, शरीर और इन्द्रियों के भोगों से रहित, पंचपरमेष्ठी की शरण को प्राप्त, तात्त्विक सन्मार्ग को ग्रहण करने वाले को दार्शनिक श्रावक कहा हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इसे दूसरा स्थान देकर कहा है कि जो अनेक त्रस जीवों से भरे हुए मांस-मद्य का सेवन नहीं करता है, वह दार्शनिक श्रावक है ।" उपासकाध्ययन में सम्यक्दर्शन १. उवासगदसाओ, १/६७ २. " सङ्कादि सल्ल विरहिय सम्मग्दंसणजुओ उ जो जन्तू सगुण विप्पक्को एसा खलु होइ पढमा उ" पृष्ठ ६५ ३. " सव्वधम्म - रुईयावि भवति । तस्सणं बहुई सीलवय - गुणवय- वेरमण-पच्चक्खाणपोषहोववासाइं नो सम्मं पट्टवित्ताई भवंति " --आचारदसा-‍ - मुनिकन्हैयालाल, ६/१७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २७ १२ Jain Education International उपासक दशांगसूत्रटीका - अभयदेव, ४. " सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोग निर्विण्णः पञ्चगुरुचरणशरणो, दर्शनिकस्तत्त्वपथगृहाः - रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ७/२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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