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उपासक दशांग : एक परिशीलन
षट्कर्मों को भी अपनाता है । अपनी भूलों के निराकरण एवं संशोधनार्थं प्रतिदिन षट्कर्म और षडावश्यक रूप क्रियाओं को भी करता है, जिससे • वह आत्मविकास की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचता है । ऐसी ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार है :
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ग्यारह प्रतिमाएँ
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सामान्यतः प्रतिमा का अर्थं प्रतिज्ञा विशेष होता है ।" इसको ग्रहण करने से श्रावक भी श्रमणतुल्यव्रतों का पालक हो जाता है, ज्यों-ज्यों वह इस श्रेणी में आगे बढ़ता है उसका आध्यात्मिक विकास भी बढ़ता जाता है । जैन आगम साहित्य - समवायांगसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध व दिगम्बर ग्रन्थ कषायपाहुड की जयधवलाटीका में भी ग्यारह प्रतिमाओं के नामोल्लेख के साथ-साथ विस्तार से उनके स्वरूप पर भी प्रकाश डाला गया है । इसी तरह श्रावकाचार के प्रतिनिधि ग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र में एक से ग्यारह तक प्रतिमाओं को ग्रहण करने का संकेत हैं । " किन्तु इन प्रतिमाओं की शेषपूर्ति उपासकदशांग सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि ने प्रत्येक प्रतिमा का स्वरूप वर्णित कर की है ।
दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं को एक गाथा में प्रस्तुत किया है । ७ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्रावक के ग्यारह पद कहकर प्रत्येक का स्वरूप प्रतिपादित किया है ।" स्वामीकार्तिकेय ने
१. प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेतियावत्" -- स्थानांगसूत्रवृत्ति, पत्र ६१ २. समवायांगसूत्र, ११/५
३. दशाश्रुतस्कन्ध - मुनि कन्हैयालाल, सूत्र १७ से २७
४. कषायपाहुड -- जयधवला, ९ / १३०
"आनन्दे, समणोवासए उवासँग पडिमाओ उवसंपज्जित्ताणं विहरइ" - उवास गदसाओ, १/६७
६. उपासकदशांग सूत्रटीका - अभयदेव, पृ० ६५ /६८ ७. " दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । भारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य" ।।
५. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १/१३७ से १४७
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-- चारित्रपाहुड, २२
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