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________________ १७३ शंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रयोग, कामभोगाशंसाप्रयोग ये अतिचार के पांच भेद बताये हैं ।' रत्नकरण्ड श्रावकाचार में जीने की आकांक्षा, मरने की आकांक्षा, परिषह से डरना, मित्रों का स्मरण और निदान पाँच अतिचार वर्णित हैं । 2 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, उपासकाध्ययन तथा अमितगतिश्रावका - चार में जीने की आकांक्षा, मरने की आकांक्षा, मित्रों का स्मरण, पूर्वंभोगों का स्मरण एवं निदान ये पाँच अतिचार उल्लेखित हैं । " श्रावकाचार इस प्रकार गुणव्रत और शिक्षाव्रत जिन्हें शीलव्रत भी कहा जाता है, के विश्लेषणात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि यदि श्रावक तदनुरूप आचरण करे तो उसको आत्मविकास की चरम अवस्था प्राप्त हो सकती है । इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए ग्यारह प्रतिमाएं षट्कर्म, षडावts आदि भी अपना विशिष्ट योगदान प्रदान करते हैं । ये श्रावक के आध्यात्मिक विकास के अन्तिम चरण माने गये हैं । प्रतिमाओं की परम्परा मानव हमेशा विकास की ओर अग्रसर होने के लिए उत्सुक रहता है चाहे वह भौतिकवाद का क्षेत्र हो चाहे आध्यात्मिक विकास का । गृहस्थ अपने आत्मिक विकास के लिए सर्वप्रथम अणुव्रतों को तत्पश्चात् गुणव्रतों व शिक्षाव्रतों को ग्रहण करता है। इसके बाद वह अपने जीवन को और अधिक उन्नत और पवित्र बनाने के लिए एवं आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ने के लिए ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण करता है । अपने दैनिक जीवन में भी सन्तोष और ईमानदारी को कार्यरूप में परिणत करने के लिए वह १. क. "पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा इहलोगासंसप्पओगे, पर लोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे" - उवास गदसाओ, १/५७ ख. श्रावकप्रज्ञप्ति, ३८५ ग. योगशास्त्र, ३/१५१ २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १२२ ३. क . पुरुषार्थं सिद्धय पाय, १७६ ख. उपासकाध्ययन, ८७१ ग. अमिगतिश्रावकाचार, ६/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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