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श्रावकाचार
१७१ "मत्स्यरिताय परेणेदं दत्तं किमहंतस्मादपिकृपणहीनोवाऽतोऽहमपिददामीत्येव रूपोदानप्रर्वतकविकल्पो"
श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में भी यही स्वरूप है।' चारित्रसार में आहार देते हुए भी आदर के बिना देना मात्सर्य कहा है । २ लाटी. संहिता में आहार देने पर यह गर्व करे कि निर्दोष आहार सिर्फ मैंने ही दिया है तो यह मात्सर्य कहा गया है।
इस प्रकार अतिथि का अर्थ जिसके आने की कोई तिथि नियत नहीं हो, से किया गया है। श्रावक के लिए ऐसे व्यक्तियों में स्वधर्मी तथा साध. साध्वीजन हैं, उन्हें अपने बनाए हुए आहार, वस्त्र आदि में से कुछ अंशदान करने को अतिथिसंविभागवत माना है। अचित्त को सचित्त कहना, सचित्त को अचित्त पर रखना, दान देने के समय को टाल देना, ईर्ष्याभाव से दान देना या दान नहीं देने के उद्देश्य से अपनी वस्तु, दूसरों की कहना अतिथि संविभागवत के बाधक तत्त्व कहे गये हैं। इनका परिहार कर इस व्रत का पालन करना चाहिये। सल्लेखना ---
जब व्यक्ति शारीरिक रूप से अत्यन्त दुर्बल हो जाय, धार्मिक अनुष्ठानों को करने में असमर्थता अनुभव करे तब व्यक्ति को शान्त चित्तसे शरीर को पोषण करने की क्रियाए छोड़ देनी चाहिए। उपासकदशांग आदि अनेक ग्रन्थों में इसे स्वतन्त्ररूप से वर्णित किया है, परन्तु कुछ आचार्यों ने इसे शिक्षाव्रत में भी स्थान दिया है । आचार्य कुन्दकुन्द एवं वसुनन्दिश्रावकाचार ने इसे शिक्षावत माना है। उपासकदशांगसूत्र में "अपच्छिममारणं तियसलेहणाझूसणाराहणाए" कहकर इसका अर्थ मरण तकके लिए की गई प्रतिज्ञा और जिसके पीछे कोई कर्त्तव्य शेष नहीं है, किया है। उपासकदशांगसूत्रटीका में सल्लेखना का अर्थ शरीर एवं कषायों को कृश करना बताया है, जोषणा का अर्थ प्रीति या सेवन करना तथा आराधना का अर्थ
१. श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, ३२७ २. चारित्रसार, पृ० १४ ३. लाटीसंहिता, ५/२२९ ४. उवासगदसाओ, १/५७
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