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आगम साहित्य और उपासकदशांग
आगम साहित्य इतना विपुल व समृद्ध है कि उसमें दार्शनिक चिन्तन के साथ साथ श्रमणों एवं श्रावकों के आचार-विचार, व्रत-संयम, त्यागतपस्या, उपवास-प्रायश्चित्त आदि के उपदेशों के साथ इन्हें स्पष्ट करनेवाली लोक प्रचलित कथाओं व दष्टान्तों के वर्णन भी भरे पड़े हैं। इसके अलावा उनसे महावीर आदि तीर्थंकरों के जन्म, तपश्चर्या, त्याग, संयम, संन्यास जीवन व उनके उपदेश, विहार-चर्या, शिष्य-परम्परा, तथा आर्य क्षेत्र की सीमा, तत्कालिक राजा, राजकुमार, अन्य मतावलम्बी आदि की जानकारी भी प्राप्त होती है।
कलाओं की दृष्टि से वास्तुकला, शिल्पकला, ज्योतिष-विद्या, भूगोल, खगोल, संगीत, नाट्य, प्राणिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि विभिन्न विद्याओं से जैन-आगम साहित्य पर्याप्त रूप से समृद्ध है। इस तरह आगमों की विशद और व्यापक सामग्री का गहराई से अध्ययन किया जाय तो इसके महत्त्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। स्थूल रूप से इसकी उपयोगिता को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है :
(१) आध्यात्मिक मूल्य-जैन आगमों का मल उद्देश्य ही आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना रहा है। इनमें सामान्य जन-जीवन के लिए आत्म साधना का सरलतम मार्ग प्रस्तुत है। "डॉ० हर्मन जेकोबी, डॉ. शुबिंग आदि भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जैनागमों में दर्शन एवं जीवन, आचार एवं विचार, भावना एवं कर्तव्य का जैसा समन्वय है, वैसा अन्य साहित्य में नहीं है।'' इसी कारण जैनागमों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनेकान्त को प्रचारित किया है।
२) दार्शनिक दृष्टि-जैनागमों में सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती, समवायांग, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय एवं नन्दी सूत्र ऐसे आगम ग्रन्थ हैं, जिनमें दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांग में परमता वलम्बियों का निराकरण कर स्वमत की स्थापना की गयी है। उसमें जगत् की उत्पत्ति ईश्वरीय न होकर अनादि अनन्त है, इस सिद्धान्त को पुष्ट किया गया है । भगवती सूत्र में आत्मा, पुद्गल ज्ञान के प्रकार, नय आदि का विवेचन है।
१. शास्त्री, देवेन्द्र मुनि-जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृष्ठ ४
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