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________________ श्रावकाचार १५५ सूत्र में कहा है कि दिशापरिमाणव्रत का प्रतिदिन संकोच किया जाता है और उस संकुचित सीमा के बाहर के आश्रव सेवन का त्याग एवं सोमा में मर्यादित वस्तु से ज्यादा वस्तु का सेवन नहीं करना, देशावकाशिकव्रत माना है।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, उपासकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगतिश्रावकाचार एवं सागारधर्मामत आदि में दिग्बत में ग्रहण किये गये विशाल देश के काल की मर्यादा से प्रतिदिन अणुव्रतधारी श्रावकों द्वारा संकोच करना देशावकाशिकव्रत बताया है ।२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जो लोभ और काम के विकार को शमन करने के लिए, पापों को छोडने के लिए, वर्ष आदि का प्रमाण करके पूर्व में किये गये सर्वदिशाओं के प्रमाण को फिर से संवरण करता है और इन्द्रियों के भोग-उपभोग का भी प्रतिदिन संवरण करता है, उसे देशावकाशिकव्रत कहा है। वसुनन्दिश्रावकाचार में जिस देश में रहते हुए व्रत भंग का कारण उपस्थित हो उस देश के नियम से जो गमननिवृत्ति की जाती है वह देशावकाशिकव्रत कहा जाता है। प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में दशों दिशाओं की मर्यादा नियत कर जो बुद्धिमान उसके बाहर नहीं जाते और भीतर ही रहते हैं, उसे देशव्रत कहा है।५ लाटीसंहिता में किसी नियत समय तक त्याग करने को देशव्रत कहा है । १. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-अणुव्रत, १० २. (क) “देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।। -रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ५/२ (ख) पुरुषार्थसिद्धय पाय, १३९ (ग) उपासकाध्ययन, ४/५ (घ) चारित्रसार श्रावकाचार संग्रह, पृष्ठ ३४३ (ङ) अमितगतिश्रावकाचार, ७८ (च) सागारधर्मामृत, ५/५ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ६६-६७ ४. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१५ ५. प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, १८/४ ६. लाटीसंहिता, ५/१२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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