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उपासकदशांग : एक परिशीलन चारित्रसार तथा लाटीसंहिता में इसका नाम अनादर देकर आलस्य, मोह एवं प्रमाद से, बिना किसी उत्साह के सामायिक करने को अनवस्थितकरण अतिचार के रूप में प्रतिपादन किया है।
अतः सामायिक व्यक्ति के समभाव की साधना है, जिसमें व्यक्ति एकान्त में एकाग्रचित्त हो अपने आपको आत्मा के समीप करता है । इसका काल मुहूर्त भर का होता है। सामायिक में मन, वचन, काय में अस्थिरता उत्पन्न होना, सामायिक के समय का ध्यान नहीं रहना तथा सामायिक को शीघ्र पूरी कर लेना दोष माने गये हैं, जिससे व्रत भंग होने की संभावनाएं रहती हैं। देशावकाशिकव्रत
यह व्रत दिशापरिमाणवत का ही सूक्ष्म रूप है, दिशापरिमाणव्रत में दसों दिशाओं की जो मर्यादा की जाती है, उसी मर्यादा में कुछ काल या घण्टों के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना देशावकाशिकव्रत कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने देशावकाशिकवत का उल्लेख नहीं किया है। उपासकदशांगसत्र, आवश्यकसूत्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, कातिकेयानुप्रेक्षा, श्रावकप्रज्ञप्ति, योगशास्त्र एवं धर्मबिन्दुप्रकरण में देशावकाशिक का शिक्षाव्रतों में स्थान दिया है। तत्त्वार्थसत्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, उपासकाध्ययन, अमितगतिश्रावकाचार तथा वसुनन्दिश्रावकाचार में देशावकाशिक को गुणवतों में स्थान दिया है। देशावकाशिकवत को चाहे गुणन्नत माने, चाहे शिक्षाव्रत या चाहे शोलवतों में स्थान दिया जाय, इसके स्वरूप के प्रतिपादन में कहीं कोई भिन्नता नहीं है।
उपासकदशांगसूत्रटीका में निश्चित समय विशेष के लिए क्षेत्र की मर्यादा कर उससे बाहर किसी प्रकार की सांसारिक प्रवृत्ति नहीं करना देशावकाशिकव्रत कहा है। यह छठे व्रत का संक्षेप है। इसमें साधना दिन-रात या न्यूनाधिक समय के लिए की जाती है।' श्रावकप्रतिक्रमण
१. "देसावगासियस्स" त्ति दिग्वतगृहीत दिक्परिमाणस्यैकदेशो देशस्तस्मिन्न
वकाशोगमनादिचेष्टा स्थानं देशावकाशस्तेन निवृतं देशावकाशिक-पूर्वगृहीतदिगवत संक्षेपरूपं सर्वव्रतसंक्षेपरूपं चेति"
-उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृ० ४५
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