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श्रावकाचार
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रखना वाग्दुष्प्रणिधान नामक अतिचार माना है।' श्रावकज्ञप्तिटीका में सामायिक में उद्यत व्यक्ति को पूर्व में बुद्धि से विचार कर निर्दोष भाषण न करने को वचन दुष्प्रणिधान कहा है। कायदुष्प्रणिधान-चारित्रसार में शरीर के हस्तपाद आदि अंगों को स्थिर नहीं रखना कायदुष्प्रणिधान माना है।३ लाटीसंहिता में शरीर को स्थिर रखकर हाथ, अंगुली, माथा, आँख, भौंह आदि से इशारा करना कायदुष्प्रणिधान नामक अतिचार बताया है। श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में सामायिक योग्यभूमि को आँखों से न देखकर, कोमल वस्त्र से प्रमार्जन नहीं कर उस स्थान का सेवन करता है,
उसके कायदुष्प्रणिधान अतिचार होता है । ४. सामायिक-स्मृतिअकरणता-सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
में सामायिक के विषय में एकाग्रता नहीं रखना स्मृतिअकरणता नामक अतिचार बताया है। योगशास्त्रस्वोपज्ञटीका, श्रावकप्रज्ञप्तिटीका आदि में 'सामायिक मुझे करनी है या नहीं करनी है अथवा सामायिक मैं कर चुका है या नहीं, इस प्रमाद के कारण सामायिक
में स्मृति न रहना यह दोष माना है । ५. सामायिक-अनवस्थितकरण-श्रावकप्रज्ञप्ति टीका में सामायिक को
करके शीघ्र वापस समाप्त कर देना या मनमाने ढंग से अनादरपूर्वक सामायिक करता है, उसे अनवस्थितकरण अतिचार माना है।'
१. "वर्णसंस्कारे भावार्थे चागमकत्वं चापलादिवाग्दुःप्रणिधान"-चारित्रसार, २४६ २. श्रावकप्रज्ञप्तिटोका, ३/४ ३. "शरीरावयवानामनिभृतावस्थानं कायदुःप्रणिधानम्" -चारित्रसार, २४६ ४. लाटीसंहिता, ५/१९१ ५. श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, ३१५ ६. (क) “अनेकताग्रयं स्मृत्यनुपत्स्थानम्'-सर्वार्थसिद्धि, ७/३३
(ख) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ७/३३ ७. (क) श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, ३/६
(ख) योगशास्त्रस्वोपज्ञटीका, ३/११६ ८. "काऊण तक्खणत्तिय पारेइ करेइ वा जहिच्छाए अणवट्टियसामाइयं
--श्रावकज्ञप्ति टीका
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