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उपासक दशांग : एक परिशीलन
१. मनोदुष्प्रणिधान - तत्त्वार्थभाष्यसिद्धवृत्ति में क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान, ईर्ष्या और कार्य की व्यस्तता से उत्पन्न क्षोभ, मन को जो दुष्प्रवृत्त करता है उसे मनोदुष्प्रणिधान कहा है ।" चारित्रसार में सामायिक करने में मन को न लगाने को मन दुष्प्रणिधान बताया है । २ लाटीसंहिता के अनुसार आत्मा के स्वरूप के चिन्तन के सिवाय अन्य पदार्थों का चिन्तन करना आता है ।
इस अतिचार में
२. वचन दुष्प्रणिधान - तत्त्वार्थभाष्यसिद्धवृत्ति में मनोदुष्प्रणिधान की जगह वचनोदुष्प्रणिधान कर दिया गया है । चारित्रसार में शब्दों के उच्चारण में और उसके भावरूप अर्थ में अजानकारी और चपलता
दुप्पणिहाणे, काय दुप्पणिहाणे, सामाइयस्ससइअकरणया अणवट्टियस्सकरणया"
ख. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र - अणुव्रत. ९ ग. तत्त्वार्थ सूत्र, ७/२८
घ रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १०५
ङ. पुरुषार्थ सिद्धय पाय, १९१
च. श्रावकप्रज्ञप्ति, ३१२
छ. योगशास्त्र, ३/११५
ज. अमितगतिश्रावकाचार, ७/११
झ. सागारधर्मामृत, ५/३३
ट. लाटीसंहिता, ५/५७
२. " मनसोऽनपितत्वं मनोदुष्प्रणिधानम् "
३. लाटीसंहिता, ५ / १८९
१. "क्रोध-लोभाभिद्रोहाभिमानेष्यदि कार्यव्यासङ्ग जातसम्भ्रमो दुष्प्रणिद्यते मन
इति मनोदुष्प्रणिधानम् "
- तत्त्वार्थभाष्यसिद्धवृत्ति, ७/२८
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सामाइयस्स
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- उवासगदसाओ, १/५३
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— चारित्रसार, २४६
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