________________
श्रावकाचार
१४९ विभिन्न शिक्षावत व अतिचार शिक्षावत
शिक्षा का सामान्य अर्थ अभ्यास से है। इसमें निरन्तर अभ्यासित रूप से व्रतों का पालन करना होता है। पूर्ववर्णित अणुव्रतों एवं गुणवतों को एक बार ग्रहण करने पर उन्हें पुनः ग्रहण नहीं करने पड़ते हैं। परन्तु शिक्षाव्रतों को पुनः-पुनः अभ्यास हेतु अल्प समय के लिए ग्रहण करना होता है। इन्हें सामायिक, देशावकाशिक, प्रौषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग इन चार रूपों में विभाजित किया गया है। वर्णन इस प्रकार
सामायिक व्रत
सामायिक को पहला शिक्षाबत माना गया है। वस्तुतः यह सामायिक आत्मा में मन, वचन, काया के द्वारा रमण करने का सकारात्मक पहलू है। श्रावकाचार के प्रमुख ग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र में सामायिक के स्वरूप के बारे में कहीं पर कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है फिर भी पूर्व में श्रावकों द्वारा बारह व्रतों के ग्रहण करने की जो प्रतिज्ञा आती है उससे अप्रत्यक्ष में इसके अस्तित्व को स्वीकारा जा सकता है। श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र के नौवं सामायिकवत में समस्त सावद्ययोग का, जितने समय तक का नियम लिया है, उतने समय तक के लिए त्याग करने को सामायिक माना गया है। उसका यह त्याग दो करण और तीन योग से होता है।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में एक निश्चित समय तक हिंसादि पाँचों पापों को तीन करण एवं तीन योग से त्याग सामायिक कहा है ।२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में पर्यङ्क आसन को बाँध कर या उस पर सीधा खड़ा होकर
१. "सव्व सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मनसा वयसा कायसा"
--श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-अणुव्रत, ९ २. क. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ९७
ख. श्रावकप्रज्ञप्ति, २९३ ग. “सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोग निक्षेपः"
-तत्त्वार्थभाष्य, ७/१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org