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श्रावकाचार
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प्रसंग उठाने को पापोपदेश कहा है।' कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, योगशास्त्र तथा सागारधर्मामृत में खेती, पशुपालन, वाणिज्य एवं आरंभ कार्यों का उपदेश तथा पुरुष-स्त्री के विवाह आदि में संयोग करने कराने के कथन को पापोपदेश कहा है।२ श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में पापोत्पादक कार्य तिर्यञ्च को कष्ट पहुँचाना, कृषि-वाणिज्य में भाग लेना एवं निरर्थक उपदेश देना कहे गये हैं। दुःश्रुति-दिगम्बर साहित्य में यह एक भेद और प्राप्त होता है, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं सागारधर्मामृत में कुमार्गप्रतिपादक शास्त्रों को सुनना, भंडण, वशीकरण, कामशास्त्र एवं अन्य लोगों के दोषों को सुनना दुःश्रुति कहा है। पुरुषार्थसिद्धयपाय तथा सर्वार्थसिद्धि में रागादि बढ़ानेवाली खोटी कथाओं को सुनना, संग्रह करना एवं शिक्षण करना दुःश्रुति माना है ।
इस प्रकार श्वेताम्बर साहित्य में चारों प्रकार के अनर्थदण्डों के त्याग को मर्यादा निश्चित करना अनर्थदण्डविमरण-व्रत माना है तो दिगम्बर साहित्य में पांचों प्रकार के अनर्थकारी कार्यों की मर्यादा करना अनर्थदण्डविरमण-व्रत माना है। कहीं-कहीं अनर्थदण्ड के भेदों को न मानकर अनर्थदण्डविरमणव्रत का स्वरूप ही प्रतिपादित कर दिया है, इसमें उपासकाध्ययन
१. क. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ७६
ख. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/२१ २. क. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४
ख. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १४२ ग. योगशास्त्र , ३/७६
घ. सागारधर्मामृत ५/७ ३. श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, २९० ४. क. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ७९ ___ ख. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७
ग. सागारधर्मामृत, ५/९ ५. क. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १४५
ख. सर्वार्थसिद्धि, ७/२१
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