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उपासक दशांग : एक परिशीलन
एवं वसुनन्दिश्रावकाचार मुख्य हैं । उपासकाध्ययन में आचार्य सोमदेव ने हिंसक जन्तुओं को पालना, हिंसा के साधन दूसरों को देना, पाप का उपदेश देना, आर्त्त एवं रोद्र ध्यान करना, हिंसामय खेल खेलना, इधर-उधर भटकना, दूसरों को कष्ट पहुँचाना, चुगली खाना, रोना अनर्थदण्ड तथा इसे रोकने को अनर्थदण्ड विरमणव्रत कहा है।" वसुनन्दिश्रावकाचार ने लोहे के शस्त्र बेचने का त्याग करना, माप-तोल के बाटों को सही रखना, क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना अनर्थदण्डत्यागवत माना है | 2
अतः इसमें श्रावक आर्त्तध्यान का, बिना प्रयोजन हिंसा के कार्य का, हिंसात्मक शस्त्रों का, पापकर्म का उपदेश एवं कुमार्ग की ओर प्रेरित करने वाले साधनों का त्याग करता है जिससे व्यर्थ की हिंसा से बचाकर सदाचारयुक्त जीवन बन सके ।
अतिचार
व्रतों के निर्विघ्न पालन करने में आने वाली बाधाओं के सन्दर्भ में इसमें भी पाँच अतिचार बताये हैं, जिनसे बचना चाहिए ।
"कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उवभोगपरिभोगाइरित्ते"
उपासकदशांगसूत्र, श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र में -- कंदर्प, कौत्कुच्य, मोखर्य, संयुक्ताधिकरण, उपभोग- परिभोगातिरेक, ये पाँच अतिचार गिनाये हैं । " रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, अतिप्रसाधन, बिना सो बिचारे कार्य करने को अतिचार कहा है । तत्त्वार्थसूत्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्रावकप्रज्ञप्ति, चारित्रसार, योगशास्त्र एवं सागारधर्मामृत में कंदर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, सेव्यार्थाधिकता एवं असमीक्षाधिकरण ये पाँच
१. उपासकाध्ययन, ७/१ ४५३-५५
२.
वसुनन्दिश्रावकाचार, २१६
३. क. उवासगदसाओ, १/५२
४.
ख. श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र - अणुव्रत, ८
कन्दर्प, कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पञ्च ।
असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ॥
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-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ८१
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