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श्रावकाचार
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सभी आचार्यों एवं मनीषियों ने इन सबके त्याग का उपदेश दिया है, ऐसी स्थिति में इनकी विस्तृत जानकारी का होना आवश्यक है :१. अपध्यानाचरित-उपासकदशांगसूत्रटीका के अनुसार गृहस्थ अपने
खेत, घर, धन, धान्य की रक्षा करता है। उन प्रवृत्तियों के आरम्भ के द्वारा जो उपमर्दन होता है वह अर्थदण्ड है। अर्थदण्ड के विपरीत निष्प्रयोजन प्राणियों के विधात को अपध्यान माना है।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार कार्तिकेयानुप्रेक्षा, सर्वार्थसिद्धि तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय में द्वेष से किसी प्राणी के वध, बन्ध और छेदनादि का चिन्तन करना एवं राग से परस्त्री का चिन्तन करना अपध्यान कहलाता है। श्रावकप्रज्ञप्ति, योगशास्त्र तथा सागारधर्मामृत में आर्त-रौद्र रूप दुष्ट चिन्तन को अपध्यान कहा है।'
२. प्रमादाचरित-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, सर्वार्थ
सिद्धि, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, सागारधर्मामृत में प्रयोजन के बिना भूमि को खोदना, पानी का ढोलना, अग्नि का जलाना, पवन का चलाना, वनस्पति का छेदन, निष्प्रयोजन घूमना एवं दूसरों को घुमाना प्रमाद
चरित में सम्मिलित किये हैं।४ श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में मद्यादिजनित १. "अर्थः प्रयोजनम् गृहस्थस्य क्षेत्र वस्तु, वास्तु धन धान्य.... तद्विपरितोऽनर्थ
दण्डः-उपासकदसांगसूत्रटीका-आचार्य अभयदेव, १/४३ २. क. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ७८
ख. कातिकेयानुप्रेक्षा, ४३ ग. सर्वार्थसिद्धि, ७/२१
घ. पुरुषार्थसिद्धय पाय, १४१, १४६ ३. क. श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, २८९
ख. योगशास्त्र , ३/७५
ग. सागारधर्मामृत, ५/९ ४. क. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ८०
ख. कातिकेयानुप्रेक्षा, ४५ ग. सर्वार्थसिद्धि, ७/२१ घ. पुरुषार्थसिद्धय पाय, १४३ ङ. सागारधर्मामृत, ५/१०-११
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