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उपासकदशांग : एक परिशीलन वही भोगोपभोगपरिमाणवत का धारी है, ऐसा कहा है।' आचार्य वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में भोग व परिभोग को अलग-अलग करके दो अलग-अलग व्रत माने हैं। यहाँ शारीरिक शृंगार, ताम्बूल, गंध एवं पुष्पादि का जो परिमाण किया जाता है, उसे भोग विरति एवं अपनी शक्ति के अनुसार स्त्री सेवन एवं वस्त्राभूषण का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोगविरति नामक व्रत माना है। - जिस प्रकार उपासकदशांगसूत्र में भोगोपभोग के इक्कीस एवं श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र में छब्बीस प्रकार की वस्तुओं का त्याग किया गया है, वह तो पदार्थों के रूप से वर्णित है, परन्तु दिगम्बर श्रावकाचार ग्रन्थों में यम एवं नियम दो प्रकार से त्याग का विधान है। इन ग्रन्थों में अल्पकाल के लिये जो त्याग किया जाता है उसे नियम और यावज्जीवन के लिए जो त्याग किया जाता है, वह यम कहलाता है। सर्वार्थसिद्धि में उपभोगपरिभोग के तीन प्रकार बताये गये हैं :--(१) दिन, रात, पक्ष, मास, दो मास, छः मास, एक वर्ष आदि । (२) भोजन, वाहन, शयन, स्नान, केसर आदि विलेपन । (३) पुष्प, वस्त्र, आभूषण कामसेवन, गतिश्रवण आदि । अतिचार
इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं। उपासकदशांगसूत्र एवं श्रावकप्रज्ञप्ति में उपभोगपरिभोग के दो प्रकार माने हैं। यहाँ ये दोनों रूप अतिचारों के वर्णन के साथ बताये हैं। इसमें पहला भोजन से तथा दूसरा कर्म से सम्बन्धित है। भोजन सम्बन्धो परिमाणवत के पाँच अतिचार माने हैं। यथा१. क. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४९
ख. अमितगतिश्रावकाचार, ६/९२ २. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१७-२१८ ३. क. “नियमो यमश्च विहितौ द्वधा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो घ्रियते ।।
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ८७ ख. उपासकाध्य यन, ७२८
ग. सागारधर्मामत, ५/१४ ४. सर्वार्थसिद्धि, ७/२१
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