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उपासकदशांग : एक परिशीलन काम में आने वाली को उपभोग कहा है।' श्रावकज्ञप्तिटीका में "उपभुज्यते इति उपभोगः" इस निरुक्ति के अनुसार एक बार भोगा जानेवाला पदार्थ एवं "परिभुज्यते इति परिभोगः" इस निरुक्ति से बार-बार भोगे जाने वाले पदार्थ को क्रमशः उपभोग और परिभोग कहा है। इन दोनों की मर्यादा निश्चित करना ही उपासकदशांगसूत्र में उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत माना है। यहाँ इक्कीस वस्तुओं के परिमाण को भी निश्चित करने के लिए कहा है। श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र में श्रावक को छब्बीस वस्तुओं के परिमाण को निश्चित करने के लिए कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में पांच इन्द्रियों के विषयभूत भोजन-वस्त्र आदि जो एक बार भोगकर छोड़ दिए जायें उसे भोग तथा जो एक बार भोग कर भी पूनः भोगे जाए उसे उपभोग कहा है ।* सागारधर्मामृत, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में भी रत्नकरण्डकश्रावकाचार के अनुसार ही भोग-उपभोग को व्याख्यायित किया है। इस भोग तथा परिभोग या उपभोग तथा परिभोग की मर्यादा को निश्चित करना हो उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत कहा जाता है।
श्वेताम्बर ग्रन्थों में सातवें व्रत का नाम उपभोग-परिभोग-परिमाणवत कहा है। परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में इसका नाम भोगोपभोगपरिमाणवत
१. "उवभोग परिभोग त्ति-उपभुज्यते पौनः पुन्येन सेव्यत इत्युपभोगो भवन वसनवनितादिः । परिभुज्यत इति परिभोगः आहारकुसुमविलेपनादिः"
-उपासकदशांगसूत्रटीका-आत्माराम, पृ० ३२ २. श्रावकप्रज्ञप्तिटीका-हरिभद्र, पृ० १६८ ३. उवासगदसाओ, २२ से ३८ ४. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र, अणुव्रत, ७ ५. क. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः ।
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ८३ ख. उपासकाध्ययन, ७२७ ६. क. सागारधर्मामृत, ५/१३-१४
ख. प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, १७/८९-९० ७. क. उवासगदसाओ, १/२२ से ३८
ख. श्रावकप्रज्ञप्ति
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