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श्रावकाचार
५. स्मृत्यन्तरद्धा-उपासकदशांगसूत्रटीका में आचार्य अभयदेव ने स्मृत्यन्तर्धान शब्द देकर इसका अर्थ मर्यादा का विस्मत होना किया है। इस प्रकार का सन्देह होना कि मैंने सौ योजन की मर्यादा की है अथवा पचास योजन की । इसके विस्मृत होने पर पचास योजन से बाहर जानेपर भी दोष लगता है चाहे मर्यादा सौ योजन की रखी हो।' तत्त्वार्थभाष्य, सर्वार्थसिद्धि आदि में नियत सीमा का कहाँ तक कितना प्रमाण किया है, वह अज्ञान एवं प्रमादवश भूल जाना अर्थं किया है।२ श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, चारित्रसार तथा लाटीसंहिता में भी वही स्वरूप प्रतिपादित है, जो तत्त्वार्थभाष्य में है।
दिग्वत में व्यक्ति अपने गमनागमन की दिशाओं की एक निश्चित दूरी की सीमा निर्धारित कर लेता है, जिससे उसके बाहर की सीमा में होने वाले कार्यों का दोष नहीं लगता है। वह मर्यादा व्यक्ति की सामर्थ्यानुसार होती है। इसमें ऊंची, नीची, तिरछी दिशा में मर्यादा से आगे जाना, क्षेत्र बढ़ाना एवं क्षेत्र की मर्यादा का ध्यान नहीं रखना, पांच दोष हैं, जिनसे बचना जरूरी होता है। उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत
जो वस्तुएं एक बार काम में आती हैं उसे उपभोग तथा जो वस्तुएं बार-बार काम में आती हैं उसे परिभोग कहा है। इसके विपरीत कहीं-कहीं पर एक बार काम में आने वाली को परिभोग तथा बार-बार
१. "स्मृत्यन्तर्धा-स्मृत्यन्तर्धानं स्मृतिभ्रंशः । किं मया व्रतं गृहीतं शतमर्यादया
पंचाशन्मर्यादया वा । इत्येवमस्यरणेयोजनशत मर्यादायामपि पञ्चाशतमतिक्रामतोऽयमतिचारोऽवसेय इति"
-उपासकदशांगसूत्रटोका-अभयदेव, पृष्ठ ३७ २. क. "स्मृत्यन्तर्धानं नाम स्मृतेभ्रंशोऽन्तधीनमीति"--तत्त्वार्थभाष्य, ७/२५
ख. "अननुस्मरणं स्मृत्यन्तराधानम्'–सर्वार्थ सिद्धि, ७/३० ३. क. श्रावकप्रज्ञप्तिटोका-२८३, पृष्ठ १६७
ख. चारित्रसार (श्रावकाचारसंग्रह), पृष्ठ २४३ ग. लाटीसंहिता, ५/१२१
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