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उपासक दशांग : एक परिशीलन
दसों दिशाओं के नाम चामुण्डाचार्य के चारित्रसार में स्पष्ट रूप से मिलते हैं । इन पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व दिशा, अधोदिशा एवं चार विदि- शाओं जिनमें ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य आदि की मर्यादा प्रसिद्ध समुद्र, अटवी, पर्वत तथा योजनों के रूप में कर लेनी चाहिए। यह मर्यादा करना ही दिग्व्रत है।' इसके सिवाय अन्य किसी में दसों दिशाओं के नाम नहीं दिए गए हैं । उपर्युक्त मर्यादा को सभी ने प्रतिपादित किया है । अतिचार
दिग्व्रत के पाँच अतिचार आचार्यों ने प्रतिपादित किए हैं । उपासकदशांगसूत्र, श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्रावकप्रज्ञप्ति, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, चारित्रसार, योगशास्त्र, अमितगति श्रावकाचार, सागारधर्मामृत में उर्ध्वदिशा का प्रमाणातिक्रम, अधोदिशा का प्रमाणातिक्रम, तिर्यदिशा का प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र वृद्धि तथा दिशा की मर्यादा की स्मृति नहीं रखना, यह पाँच अतिचार बतलाये गये हैं ।
ख. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४०, ४१ श्रावकप्रज्ञप्ति, २८०
ग.
घ. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १३७, १३८
ङ. उपासकाध्ययन, ७/४१५
च. अमितगतिश्रावकाचार, ६/७७
छ. योगशास्त्र, ३/१
ज. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१४
झ. सागारधर्मामृत, ५/२
१. " तत्रप्राची अपाची उदीची प्रतीची उर्ध्वं अधोविदिशश्चेति"
२. क. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ६९
ख. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १३७
ग. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१४ घ. सर्वार्थसिद्धि, ७/२१
- चरित्रासार- शीलसप्तक वर्णन
३. क. " उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमा गाइकने, तिरियदिसिपमाणा
इक्कमे, खेत्तवुड्ढी सइअंतरद्धा"
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- उवासगदसाओ, १/५०
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