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श्रावकाचार
१२५ विभिन्न गुणव्रत व अतिचार
इस प्रकार विभिन्न आचार्यों द्वारा वणित गुणवतों और शिक्षाव्रतों के क्रम में चाहे जो परिवर्तन रहा हो, परन्तु स्वरूप के सम्बन्ध में मतभेद नहीं है।
गुणवत
मूलव्रतों (अणुव्रतों) की यथोचित परिपालना एवं उन्नति के लिए गुणव्रतों का निर्माण कर उसमें दिग्वत, उपभोगपरिभोग तथा अनर्थदण्ड को सम्मिलित किया गया है। ये अणुव्रतों में गुणों का विकास करने में सहायक सिद्ध होते हैं। इनका क्रमशः संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
दिग्व्रत-इस दिग्व्रत को सभी आचार्यों ने गुणव्रत माना है । उपासकदशांगसूत्र में इसके स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा है। इसकी टीका में इसके स्वरूप के बारे में कहा है कि पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में 'मैं' इतना दूर तक नहीं जाऊँगा तथा इससे आगे नहीं जाऊँगा, इस प्रकार दिशाओं की मर्यादा कर लेना दिग्व्रत है।' आवश्यक सूत्र में बारह व्रतों के अतिचारों के पाठ में ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक दिशा का यथापरिमाण तथा पांच आश्रव सेवन के त्याग को दिगवत कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में दसों दिशाओं की मर्यादा करके सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए "मैं इससे बाहर नहीं जाऊँगा" इस प्रकार का मरणपयन्त तक के लिए संकल्प दिग्व्रत कहा है।३ रत्नकरण्डकश्रावकाचार में नामोल्लेखित
१. “मज्जाया गमणे होइ, पुव्वाइसु दिसासु जा। एयं सिया दिसिवयं तिविहं तं च कित्तिय ॥
-उपासकदशांगसूत्रटीका-मुनि घासीलाल पृ० २३५ २. "छठा दिशिव्रत-उड्ढदिशि का यथापरिमाण, अहोदिशि का यथापरिमाण, तिरियदिशि का यथापरिमाण एवं आगे जाकर पाँच आश्रव सेवन का
-आवश्यकसूत्र ६ ३. क. "दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति सङ्कल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्य ।।
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ६८
पच्चक्खाण ।"
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