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श्रावकाचार
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तीन योग से पालन करता है, अर्थात् वह मन-वचन व शरीर से न तो हिंसा, झूठ आदि बोलता है, और न ही दूसरों से बुलवाता है। अहिंसा अणुव्रत में स्थूल हिंसा का, सत्याणुव्रत में स्थूल असत्य का, अचौर्याणुव्रत में स्थूल चोरी का त्याग करता है। ब्रह्मचर्य-अणुव्रत में अपनी पत्नो को छोड़कर अन्य का परित्याग करता है। अपरिग्रहअणुव्रत में २१ या २६ बोलों ( वस्तुओं ) की मर्यादा करता है। साथ ही प्रत्येक व्रत के पांचपांच अतिचार रूप दोषों को ध्यान में रखता है, जिससे व्रत किंचित् मात्र भी स्खलित नहीं हों।
इन पाँचों अणुव्रतों की पालना के साथ-साथ श्रावक पाँच उदुम्बरों तथा मद्य, मांस व मधु इन आठ मूलगुणों का भो त्याग करता है, जो धार्मिकता के विरुद्ध होने के साथ-साथ मानव को विकृत और वहशी बनाते हैं । रात्रिभोजन त्याग की महत्ता इसी से आंकी जा सकतो है कि इसे छठा अणुव्रत मानकर कई आचार्यों ने वर्णित किया है।
ये अणुव्रत और मूलगुण जहाँ एक ओर धार्मिक सिद्धान्तों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था को यथारोति से चलाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। सहअस्तित्व एवं समाजवाद की दिशा में इन व्रतों का पालन महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इन अणुव्रतों को परिपुष्ट और उन्नत बनाने के लिए गुणवतों एवं शिक्षाक्तों का भी विधान किया गया है, जो व्यक्ति को नियमित, संयमित, त्याग और दान की ओर प्रेरित करते हैं।
गुणव्रत शब्द का अर्थ, स्वरूप एवं वर्गीकरण
अणुव्रतों के विकासक्रम को व्यवस्थित आधार प्रदान करने के लिये जैन दर्शन में गुणवतों और शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। वस्तुतः अणवतों द्वारा आत्मविकास में उत्पन्न कठिनाइयों को गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत ही दूर करते हैं एवं उनमें नवीन शक्ति को उद्भावना करते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि जैसे परकोटे नगर की रक्षा करते हैं उसी प्रकार शोलवत अणुव्रतों को रक्षा करते हैं।' यहाँ शोलव्रत का १. परिघय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि" ।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १३६
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