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________________ १२० उपासकदशांग : एक परिशीलन चाहिये ।' धर्मबिन्दु में आसनशय्या आदि उपकरण को कुप्य और इनके प्रमाण अतिक्रमण को कुप्यप्रमाणातिक्रमण कहा है ।२ रात्रिभोजन प्रायः सभी आचार्यों ने रात्रिभोजन के त्याग का उपदेश दिया है। उसका यह स्वरूप चाहे छठे अणुव्रत के रूप में रहा हो, चाहे स्वतन्त्र रूप में इसको वर्णित किया गया हो या चाहे ग्यारह प्रकार के श्रावकों एवं प्रतिमाओं में स्थान दिया गया हो। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रपाहड में ग्यारह प्रकार के संयमाचरण में रात्रिभोजन त्याग को भी स्थान दिया है।३ स्वामीकार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है कि जो ज्ञानी पुरुष चारों ही प्रकार के आहार को रात्रि में न स्वयं खाता है, न दूसरों को खिलाता है, वह रात्रिभोजन प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयपाय में कहा है कि रात्रि में भोजन करने वालों से अनिवार्य रूप से हिंसा होती है अतः रात्रिभोजन को त्यागना चाहिए।" अमितगतिश्रावकाचार में कहा है कि संयम का विनाशक, जीते-जागते जीवों को खाने की संभावना वाले, ऐसे महादोषों के आलयभूत रात्रि के समय भोजन नहीं करना चाहिये ।' सागारधर्मामृत में पं० आशाधर ने कहा है कि लोक कल्याण के इच्छुक जैन श्रावक को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये। लाटीसंहिता में भी रात्रिभोजन त्याग का उपदेश दिया है। इस प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों को श्रावक अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार दो करण और १. लाटीसंहिता, ५/१०७ २. "तथा कुप्यं आसन शयनादि गृहोपस्करं तस्य यन्मानं तस्य पर्यायान्तरा रोपणना ति क्रमोऽतिचारो भवति-धर्मबिन्दु, ३/२७ ३. चारित्रपाहुड-(अष्टपाहुड)-आचार्य कुन्दकुन्द, २२ ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ८१ ५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १२९ ६. अमितगतिश्रावकाचार, ५/४०-४२ ७. सागारधर्मामृत, ४/२७ ८. लाटीसंहिता, १/३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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