SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार १०७ ने पर महिला से मेथुन सेवन करना अब्रह्म माना है ।" तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने "मैथुनब्रह्म" कहा है, अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर रागभाव से प्रेरित होकर स्त्री-पुरुष का जोड़ा जो रति सुख के लिए चेष्टा करता है उसे मैथुन कहते हैं और मैथुन ही अब्रह्म है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में जो वेदनोकषाय के राग योग से स्त्री-पुरुष की जो मैथुन क्रिया होती है उसे अब्रह्म माना है । ३ सर्वार्थसिद्धि में मैथुन का स्वरूप चारित्रमोह का उदय होने पर राग आक्रान्त स्त्री-पुरुष के जो परस्पर के स्पर्श की इच्छा होती है वह मिथुन एवं उनकी क्रिया को मैथुन माना गया है । ४ मैथुन के प्रकार - स्थानांगसूत्र में तीन प्रकार के मैथुन कहे गये हैं जिन्हें दिव्य, मानुष्य एवं तिर्यक् के रूप में माना है ।" आवश्यकसूत्र में मन, वचन, काय के भेद से तीन प्रकार का मैथुन माना गया है । ब्रह्मचर्यं स्वरूप उपासकदशांगसूत्र में आनन्द ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत को ग्रहण करते हुए प्रतिज्ञा की कि - "सदार संतोसिए परिमाणं करेइ, ननत्थ एक्काए सिवानंदाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहि पच्चक्खामि " अर्थात् मैं स्वपत्नी सन्तोष व्रत ग्रहण करता हूँ, अपनी शिवानन्दा नामक पत्नी के अतिरिक्त सब प्रकार के मैथुन का त्याग करता हूँ । १. थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य । परिहारो परमहिला, परग्गहारंभ परिमाणं ॥ २. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१६ - चारित्रपाहुड, गाथा २४ ३. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, १०७ ४. " स्त्री पुंसयोश्चारित्र मोहोदयेसति रागपरिणामा विष्टयोः परस्पर स्पर्शनं प्रतिइच्छा मिथुनम् मिथुनस्य कर्म मैथुनमिच्युच्यते " - सर्वार्थसिद्धि, ७/१६ ५. " तिविहे मेहुणे पण्णत्त- दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खजोणिए - स्थानांगसूत्र, ३/१ ६. "सदार संतोसिए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि - मणसा वयसा कायसा " - आवश्यकसूत्र, पृष्ठ ३२४ ७. उवासगदसाओ, १/१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy