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उपासक दशांग : एक परिशीलन
आवश्यकसूत्र में भी अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष रखकर अन्य सम्पूर्ण मैथुन सेवन का त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत माना गया हैं ।"
ब्रह्मचर्य - अणुव्रत के ग्रहण से श्रावक काम वासना से पूर्ण-निवृत्त तो नहीं होता है, परन्तु संयमित हो जाता है जिससे वह एक सद्गृहस्थ की भूमिका का निर्वाह कर लेता है । रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि जो पाप के भय से पराई स्त्रियों के पास न जाता है, न दूसरों को भेजता है, वह स्वदारसन्तोष नामक अणुव्रत का पालन करता है । सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद में लिखा है कि गृहीत या अगृहीत पर स्त्री के साथ रति न करना गृहस्थ का चौथा अणुव्रत है । सोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन में लिखा है कि अपनी विवाहिता स्त्री और वित्त स्त्री के सिवाय अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहन या पुत्री मानना ब्रह्मचर्याणुव्रत है | कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि जो पराई स्त्रियों को अपनी माता, बहन व पुत्री के समान समझता है वह भी मन, वचन व काय से स्थूल ब्रह्मचर्यव्रत का धारी है । वसुनन्दि श्रावकाचार में लिखा है कि अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में स्त्रीसेवन तथा सदा अनंगक्रीड़ा का त्याग करने वाले को स्थूलब्रह्मचारी कहा जाता है । सागारधर्मामृत में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का ही स्वरूप बताया गया है । ७
उपर्युक्त आगम ग्रन्थों व अन्य विवेचन से यह प्रतीत होता है कि सभी ने स्वस्त्री को छोड़कर बाकी सभी स्त्रियों के संसर्ग के त्याग को ब्रह्मचर्य - व्रत बताया है । परन्तु आचार्य सोमदेव ने स्वस्त्रो के साथ वेश्या को भी शामिल कर लिया है । इसका क्या कारण है, यह नहीं बताया गया
१. "सदार संतोसिए अवसेसं मेहुणविहि पच्चक्खामि " - आवश्यकसूत्र, पृष्ठ ३२४ २. न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् सा परदारनिवृत्तिः स्वदार सन्तोषनामपि- - रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ५९
३. सर्वार्थसिद्धि, ७/२०
४. उपासकाध्ययन, श्लोक ४०५
५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३८
६. वसुनन्दि-श्रावकाचार, श्लोक २१२ सागारधर्मामृत, ४/५२
७.
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