________________
श्रावकाचार दूसरों के धन को न स्वयं ग्रहण करे, न दूसरों से करावे तभी अस्तेयव्रत होता है।' अतिचार। व्रत को यथाशक्ति परिपालन करते हुए भी प्रमाद या असावधानीवश इनमें जो स्खलना हो जाती है उन्हें अतिचार कहते हैं । अचौर्यव्रत के पांच अतिचार उपासकदशांगसूत्र में बताये गये हैं :
"थूलगं अदिन्नादाणविरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समाय. रियव्वा, तंजहा-तेनाहडे, तक्करपओगे विरुद्धरज्जातिकमे, कुडतुल्लकूटमाणेतप्पडिरुवगववहारे ।"
अर्थात् स्थूलअदत्तादान विरमण व्रत के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं। ये हैं :-स्तेनाहृत, तस्कर प्रयोग, विरुद्ध राज्यातिक्रम, कुटतुल-कूटमाण, तत्प्रतिरूपक व्यवहार ।२ रत्नकरण्डकश्रावकाचार में भी किसी को चोरी के लिये भेजना, चोरी की वस्तु को लेना, राज्य नियमों का उल्लंघन करना, बहुमूल्य वस्तु में समान रूप वाली अल्प मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना एवं देने में कम तथा लेने में अधिक नाप तोल करना अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार गिनाये हैं । तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने,' पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने तथा सागारधर्मामृत में आचार्य आशाधर ने भी यहो पांच अतिचार गिनाये हैं।'
सोमदेव ने अपने उपासकाध्ययन में कहा है कि बाँट, तराजू को कमती बढ़ती रखना, चोरी का उपाय बतलाना, चोरो का माल खरीदना, देश में युद्ध छिड़ जाने पर पदार्थों का संग्रह करना अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं।
१. सागारधर्मामृत, ४/४६ २. उवासगदसाओ, १/४३ ३. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ५८ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ७/२७ ५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १८४ ६. सागारधर्मामृत, ४/५० ७. उपासकाध्ययन, श्लोक ३७०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org