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उपासकदशांग : एक परिशीलन अर्थात् मैं स्थूल अदत्तादान का दो करण तीन योग से त्याग करता हूँ।'
आवश्यकसूत्र में स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत का स्वरूप बताते हुए कहा है कि श्रमणोपासक स्थूल अदत्तादान का त्याग करता है, वह दो प्रकार का है-सचित्त अदत्तादान एवं अचित्त अदत्तादान । यहाँ सचित्त अदत्तादान का तात्पर्य चेतनायुक्त पदार्थों, जिसमें दास-दासी, गाय-भैंस वगैरह से है तथा अचित्त का तात्पर्य धन, जमीन, सोना-चाँदी आदि धातु तथा रुपयेपैसे से है । रत्नकरण्डकश्रावकाचार के अनुसार जो दूसरे की रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई, वस्तु को और बिना दिये हुए धन को न तो स्वयं लेता है न उठाकर दूसरों को देता है उसे अचौर्याणुव्रतधारी कहते हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जो बहुत मूल्यवाली वस्तु को अल्प मूल्य में नहीं लेता है, दूसरों को भूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता है, जो अल्प में संतोषधारण करता है, जो पराये द्रव्य को क्रोध, मान, माया, लोभ से अपहरण नहीं करता है तथा धर्म में दृढ़ चित्त है वही अचौर्याणुव्रती है। आचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में खेत में, गांव में, वन में, गली में, घर में, खलिहान में, अथवा ग्वाल-टोली में रखे, गिरे, पड़े या नष्ट-भ्रष्ट हुए पराये द्रव्य को ग्रहण नहीं करने को अचौर्याणवत माना है । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में कहा है कि किसी की गिरी हुई वस्तु को रखकर भूलो हुई वस्तु को, स्वामी के पास रखी हुई वस्तु को बिना अनुमति के किसी भी सकट के उत्पन्न होने पर न लेना अस्तेय है। सागारधर्मामृत में कहा गया है कि पुत्रादिक से रहित अपने कुटुम्बी भाई वगैरह के धन से तथा सम्पूर्ण लोगों द्वारा भोगने योग्य जल, घास आदि पदार्थों से भिन्न,
१. उवासगदसाओ, १/१५ २. थूलगं अदिण्णादाणं समणोवासओ पच्चक्खाइ, से अदिण्णादाणे दुविहे पण्णत्ते
तंजहा–सचित्तादत्तादाणे अचित्तादत्तादाणे य-आवश्यकसूत्र, ३ ३. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ५७ ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक ३४-३५ ५. क. अमितगति-श्रावकाचार, ६/५९
ख. वसुनन्दि-श्रावकाचार, श्लोक २११ ६. योगशास्त्र, प्रकाश २/६६
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