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उपासकदशांग : एक परिशीलन
निरोध माना है। जिसका समर्थन प्रश्नोत्तरश्रावकाचार एवं लाटीसंहिता के रचयिताओं ने किया है। नौकर आदि को समय पर वेतन नहीं देना भी इसी में सम्मिलित है।
इस प्रकार अहिंसा अणुव्रत में श्रावक मन, वचन व शरीर के द्वारा त्रसजीवों की अहिंसा करने तथा करवाने का त्याग करता है। इस स्थूलत्याग के साथ-साथ सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा अनावश्यक रूप से नहीं करता है । हर कार्य को विवेक युक्त होकर करता है। अहिंसा अणुव्रत के पालन के साथ-साथ ही श्रावक को ऐसे दोषों को भी ध्यान में रखकर चलना होता है जिनसे व्रत-खण्डन होने की आशंका होती है। अहिंसा के क्रोध में आकर किसी को बांधना, किसी को मारना,अंग का खण्डन करना, किसी के क्षमता से ज्यादा भार लादना एवं किसी के खाने-पीने में बाधा पहँचाना, ये पांच दोष माने गये हैं। अतः विवेकी श्रावक इन दोषों से बचकर अहिंसा की आराधना करता है। सत्य अणुगत
श्रावक के पांच अणुव्रतों में सत्य का दूसरा स्थान है। सत्य का सामान्य अर्थ असत्य भाषण नहीं करने से लिया जाता है। उपासकदशांगसूत्र में मृषावाद को असत्य कहा है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में अलीक वचन को असत्य कहा है।४ तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वति ने "असभिधानमनृतम्" कहकर यह स्पष्ट किया है कि वह वचन जिससे प्राणियों को पीड़ा पहुँचती हो, चाहे वह सच हो या झूठ, असत्य कहलाता है ।५ धवला० में अप्रशस्त वचन का नाम मृषावाद कहकर ऐसा वचन-कलाप मिथ्यात्व, असंयम, कषाय व प्रमाद के आश्रय से उत्पन्न होना बताया है। सर्वार्थ
१. चारित्रसार-श्रावकाचारसंग्रह, १/२३९ २. क. प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, १२/१३९ ख. लाटीसंहिता, ४/२७० ३. तयाणंतरं च णं थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ-उवासगदसाओ, १/१४ ४. जंबू ! बितियं च अलियवयणं-प्रश्नव्याकरण-सुत्तागमे, पृष्ठ १२०५ ५. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१४ ६. असंतवयणं मुसावादो। किमसंतवयणं ? मिच्छतासंजम-कषाय-पमादुट्ठावियो
वयणकलावो-धवला० १२, पृष्ठ २७९
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