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श्रावकाचार
अर्थात् स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत के पाँच अतिचार हैं जिन्हें जानना चाहिए पर आचरण नहीं करना चाहिए। वे बंध, वध, छविच्छेद, भत्तपानविच्छेद, अतिभार हैं।' तत्वार्थसूत्र में बंध, वध, च्छेद, अतिभार तथा अन्नपाननिरोध अहिंसाणुव्रत के अतिचार माने हैं। रत्नकरंण्डकश्रावकाचार में उक्त पाँचों को ही अतिचार गिनाये हैं।३ आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में, आचार्य अमितगति ने श्रावकाचार में एवं पं० आशाधर ने सागारधर्मामृत में उक्त पाँचों को ही अतिचार बताये हैं।
अहिंसा के इन पाँचों अतिचारों का परिचय इस प्रकार है१. बन्ध-उपासकदशांगटीका में पशु या दास-दासी को ऐसा बांधना जिससे उसे कष्ट हो, बन्ध कहा गया है।"
'बन्धोद्विपदादीनारंज्वादीना संयमणं' तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि में अभीष्ट स्थान पर जाने से रोकने के कारण को बन्ध कहा है। चामुण्डाचार्य ने चारित्रसार में प्रत्येक अतिचार का वर्णन किया है। वहाँ अपने गन्तव्य स्थान पर जाने से रोकने के निमित्त कील, खटी आदि में रस्सी आदि से किसी को बांधना बन्ध नामक अतिचार माना है। आचार्य सकलकोति ने अपने प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में बंध का अर्थ पशु आदि को रस्सी से मजबूतो
१. उवासगदसाओ, सूत्र ४१ । २. बन्ध-वध-च्छेदातिभारारोपणान्नपान निरोधाः -तत्त्वार्थसूत्र, ७/२५ ३. छेदन बन्धन-पीडनमति भारारोपणं व्यतिचाराः ।
आहारवारणापि च स्थूलवधाक व्युपरतेः पञ्च-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ५४ ४. क. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १८३
ख. अमितगतिश्रावकाचार, ७/३
ग. सागारधर्मामृत, ४,१५ ५. उपासकदशांगटीका-अभयदेव पृष्ठ २७ ६. अभिमतदेशगति निरोध हेतु बंधः-सर्वार्थसिद्धि, ७/२५ ७. तत्राभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबन्धहेतोः
कीलादिषु रज्ज्वादिभिर्व्यतिषङ्गो बन्धः-चारित्रसार, पृ० २३८
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