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६६ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
फिर भी इतना निश्चित है कि आजीवकों की परम्परा महावीर और गोशालक के पूर्व भी प्रचलित थी, सम्भव है कि आजीवकों की यह परम्परा ऋषभ की परम्परा रही हो । परवर्ती जैन ग्रन्थों में यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के धर्म में समानता होती है, वह आकस्मिक नहीं है । तार्किक आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि महावीर ने पार्श्व की परम्परा की अपेक्षा आजीवकों के रूप में जीवित ऋषभ की नग्नतावादी परम्परा को ही प्राथमिकता दी और स्वीकार किया ।
जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं, पं० कैलाशचन्द्र जी आदि कुछ जैन विद्वानों ने इन सब उल्लेखों के आधार पर ऋषभ को एक ऐति हासिक व्यक्ति सिद्ध करने का प्रयास किया है और उनकी समरूपता शिव के साथ भी स्थापित की गई है। जिसके आधार निम्न हैं
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प्रथम तो ऋषभ और शिव दोनों ही दिगम्बर हैं। शिव का वाहन नन्दी ( वृषभ ) है तो ऋषभ का लांछन भी वृषभ है। दोनों ध्यान, साधना और योग के प्रवर्तक माने जाते हैं जहाँ शिव को कैलाशवासी माना गया है, वहाँ ऋषभ का निर्वाण भी कैलाश पर्वत (अष्टापद) पर बताया गया है। इसी प्रकार दोनों वैदिक कर्मकाण्ड के विरोधी, निवृत्तिमार्गी और ध्यान एवं योग के प्रस्तोता हैं । यद्यपि दोनों में बहुत कुछ समानताएँ खोजी जा सकती हैं, फिर भी परवर्ती साहित्य में वर्णित दोनों के जीवनवृत्तों के आधार पर आज यह कहना कठिन ही है कि वे अभिन्न व्यक्ति हैं या अलग-अलग व्यक्ति हैं; परन्तु इस समग्र चर्चा से इतना निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि ऋषभ को भारतीय समाज और संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था । यही कारण है कि हिन्दू परम्परा उन्हें भगवान् के चौबीस अवतारों में प्रथम मानवीय अवतार के रूप में स्वीकार करती है ।
बौद्ध साहित्य में धम्मपद में "उसभं पवरं वीरं" (४२२) के रूप में ऋषभ का उल्लेख हैं, यद्यपि यह शब्द ब्राह्मण का एक विशेषण है अथवा ऋषभ नामक तीर्थंकर को सूचित करता है, यह विवादास्पद ही है ।
१. " भगवान ऋषभदेवो योगेश्वरः । ” भागवत ५।५।९ । "नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपति ऋषभः ।” “योगिकल्पतरुं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् ।”
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वही ५1५1३५ - ज्ञानार्णव १२
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