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________________ तीर्थकर को अवधारणा : ४३ २६. अन्य तीर्थवाले विद्वान् भगवान् के पादमूल में आकर निरुत्तर हो जाते हैं। साथ ही जहाँ भगवान् का विहार होता है, वहाँ पच्चीस योजन तक निम्न बातें नहीं होती२७. ईति अर्थात् धान्य को नष्ट करने वाले चूहे आदि प्राणियों की उत्पत्ति नहीं होती। २८. महामारी ( संक्रामक बीमारी ) नहीं होती। २९. अपनी सेना उपद्रव नहीं करती।। ३०. दूसरे राजा को सेना उपद्रव नहीं करती। ३१. अतिवृष्टि नहीं होती। ३२. अनावृष्टि नहीं होती। ३३. दुर्भिक्ष नहीं होता। ३४. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियां भी शीघ्र ही शान्त ___ हो जाती हैं और रुधिर वृष्टि तथा ज्वरादि का प्रकोप नहीं होता। (स) वचनातिश्य जैन आगमों में पैंतीस वचनातिशयों के उल्लेख मिलते है। संस्कृत टोकाकारों ने प्रकारान्तर से ग्रन्थों में प्रतिपादित वचन के पैंतीस गुणों का उल्लेख किया है। यही पैंतीस वचनातिशय कहलाते हैं जो निम्न हैं१. संस्कारत्व :-वचनों का व्याकरण-सम्मत होना। २. उदात्तत्व :-उच्च स्वर से परिपूर्ण होना। ३. उपचारोपेतत्व :-ग्रामीणता से रहित होना। ४. गम्भीरशब्दत्व :-मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त होना । ५. अनुनादित्व :-प्रत्येक शब्द का यथार्थ उच्चारण से युक्त होना। ६. दक्षिणत्व :-वचनों का सरलता से युक्त होना । ७. उपनीतरागत्व :-यथोचित् राग-रागिणी से युक्त होना । उपरोक्त अतिशय शब्द-सौन्दर्य की अपेक्षा से जाने जाते हैं एवं शेष अतिशय अर्थ-गौरव की अपेक्षा से जाने जाते हैं । ८. महार्थत्व :-वचनों का महान् अर्थ होना। ९. अव्याहतपौर्वापर्यत्व :-पूर्वापर अविरोधी वाक्य वाला होना । १०. शिष्टव :-वक्ता की शिष्टता का सूचक होना। १. पणीतीसं सच्चवयणाइसेसां पण्णता -समवायांग सूत्र, समवाय ३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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