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________________ तीर्थकर की अवधारणा : ३९ तीर्थंकरों के अतिशयों को जैनाचार्यों ने निम्न तीन भागों में भी विभाजित किया है क-सहज अतिशय ख-कर्मक्षयज अतिशय ग-देवकृत अतिशय उक्त तीन अतिशयों के चौंतीस उत्तरभेद किये गये हैं। श्वेताम्बरपरम्परा में सहज अतिशय के चार, कर्मक्षयज अतिशय के ग्यारह और देवकृत अतिशय के उन्नीस भेद स्वीकार किये गये हैं। (क) सहज अतिशय १-सुन्दर रूप, सुगन्धित, निरोग, पसीना एवं मलरहित शरीर । २-कमल के समान सुगन्धित श्वासोछ्वास । ३-गौ के दुग्ध के समान स्वच्छ, दुर्गन्ध रहित मांस और रुधिर । ४-चर्मचक्षुओं से आहार और नीहार का न दिखना । (ख) कर्मक्षयज अतिशय १. योजन मात्र समवसरण में क्रोडाक्रोडी मनुष्य, देव और तियंचों का समा जाना। २. एक योजन तक फैलने वाली भगवान् की अर्धमागधी वाणी को मनुष्य, तिर्यंच और देवताओं द्वारा अपनी-अपनी भाषा में समझ लेना। ३. सूर्य प्रभा से भी तेज सिर के पीछे प्रभामंडल का होना । ४. सौ योजन तक रोग का न रहना। ५. वैर का न रहना। ६. ईति अर्थात् धान्य आदि को नाश करने वाले चूहों आदि का अभाव । ७. महामारी आदि का न होना । ८. अतिवृष्टि न होना। ९. अनावृष्टि न होना। १०. दुर्भिक्ष न पड़ना। ११. स्वचक्र और परचक्र का भय न होना । (ग) देवकृत अतिशय १. आकाश में धर्मचक्र का होना । २. आकाश में चमरों का होना । ३. आकाश में पादपीठ सहित उज्ज्वल सिंहासन । ४. आकाश में तीन छत्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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