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________________ २९० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन से अपने को नहीं बचा सकी हैं। यद्यपि उपनिषदकार और शंकर जैसे विचारक "अहं ब्रह्मास्मि" का निनाद भी करते हैं। पुनः हिन्दू धर्म में जो दस अवतारों की कल्पना है वह किसी सीमा तक जैविक-विकास की परिचायक तो अवश्य है, किन्तु अवतारवाद मूलतः विकास की अवधारणा का विरोधी ही है । तीर्थङ्कर और बुद्ध को अवधारणा में व्यक्ति नोचे से ऊपर आध्यात्मिक विकास की दिशा में उत्क्रमण करता है, जबकि अवतार को अवधारणा में पूर्ण पुरुष ऊपर से नीचे की ओर आता है। इस प्रकार उत्तरण एवम् अवतरण के प्रश्न को लेकर ये विचारधारायें एक दूसरे से भिन्न हैं। तीर्थङ्कर और बुद्ध को अवधारणा व्यक्ति को यह आश्वासन देती है कि यदि वह आध्यात्मिक साधना के द्वारा प्रगति करे तो स्वयं भी तीर्थकरत्व या बुद्धत्व को प्राप्त कर सकता है । जबकि अवतारवाद की अवधारणा में व्यक्ति अपनो साधना के द्वारा चाहे ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर ले, परन्तु ईश्वर नहीं बन सकता। अवतारवाद के अनुसार उपास्य और उपासक का भेद सदा बना रहता है जबकि तोर्थङ्कर और बद्ध को अवधारणाएँ इस द्वैत को समाप्त करने की बात करती हैं, चाहे वह बौद्ध धर्म हो या जेन धर्म, दोनों हो व्यक्ति को सम्प्रभुता को स्वीकार करके चलते हैं, जबकि अवतारवाद उस सम्प्रभुता को स्वीकार नहीं करता। पुनः जहाँ तीर्थङ्कर और बुद्ध की अवधारणाएँ पुरुषार्थवाद का समर्थन करती हैं वहाँ अवतारवाद में कृपा और नियति के तत्त्व प्रमुख बन जाते हैं। तीर्थङ्कर और बुद्ध दोनों ही व्यक्ति को सन्देश देते हैं कि तू अपना भाग्य का निर्माता है, अपने उत्थान-पतन के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है, जबकि अवतार व्यक्ति को यह आश्वासन देता है कि तू मेरे प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो जा, फिर तेरे कल्याण का दायित्व मेरा है। यद्यपि यह सत्य है कि तीर्थङ्कर, बुद्ध और अवतार तोनों हो लोकमाल के लक्ष्य को लेकर आते हैं। किन्तु यदि हम विचारपूर्वक देखें तो न तो तोर्थङ्कर और न बुद्ध ही लोककल्याण में सक्रिय भागोदार बनते हैं। वे मात्र मार्गउपदेष्टा या पथप्रदर्शक बन कर रह जाते हैं। वे अपने उपासक को यह आश्वासन नहीं दे पाते कि तुम्हारे कल्याण का सम्पूर्ण दायित्व हमारा है, जबकि अवतार लोककल्याण विशेष रूप से अपने भक्तों के लोककल्याण का सक्रिय भागीदार होता है । वस्तुतः तीर्थंकर और बुद्ध को अवधारणाओं से अवतार की अवधारणा को यह भिन्नता, मलतः उन धर्मों को निवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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