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________________ उपसंहार : २८९ अवधारणा का मूल उद्देश्य आसुरी शक्ति का विनाश ही विदित होता है । अवतार का मुख्य उद्देश्य यहाँ देत्यों का संहार है । वाल्मीकि रामायण में राम को दैत्यों के संहार के मुख्य प्रयोजन के कारण विष्णु का अवतार कहा गया है । महाभारत के अनुसार भी दैत्यों का संहार करने के लिए विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अंशावतार ग्रहण किया है। गीता के चतुर्थ अध्याय में भी अवतार की अवधारणा मिलती है । विशेषता यह है कि महाभारत कृष्ण को पूर्णावतार न कहकर अंशावतार ही कहती है । गीता में ईश्वर के अवतार का प्रयोजन धर्मं की स्थापना, साधुओं की रक्षा और दुष्टों का विनाश करना कहा गया है । विष्णुपुराण एवं भागवत में भी अवतार का प्रयोजन धर्म की रक्षा एवं भूभार-हरण है । अवतारवाद की अवधारणा का मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि वह मनुष्य को आत्मविश्वास दिलाता है कि वह नितान्त एकाकी नहीं है, कोई अदृश्य शक्ति उसकी सहायक है और उसे कष्टों से मुक्त करने में प्रयत्नशील रहती है | मनुष्य में यह आस्था या विश्वास जागृत करना ही मनोविज्ञान के दृष्टिकोण में अवतारवाद का मूल उत्स है, क्योंकि श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि तू मेरे में मन लगा, मुझे ही नमस्कार कर, मैं तुझे सर्वपापों से मुक्त कर दूंगा । इस प्रकार हिन्दू धर्म का अवतार भक्तों के योगक्षेम का वाहक और लोककल्याण का कर्ता है | संक्षेप में तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार सभी के जीवन का मूलभूत लक्ष्य धर्म की संस्थापना या धर्म का प्रवर्तन है । फिर भी तीर्थंकर और बुद्ध की अवधारणाओं से भिन्न अवतार की अवधारणा का लक्ष्य न केवल धर्म की संस्थापना है अपितु साधुजनों की रक्षा तथा दुष्टों का विनाश भी है । इस प्रकार जहाँ तीर्थङ्कर और बुद्ध मूलतः धर्म संस्थापना के लक्ष्य को लेकर चलते हैं, वहाँ अवतार धर्म संस्थापना के साथ दुष्टों का नाश और साधुजनों की रक्षा का लक्ष्य भी अपने सामने रखता है । पुनः तोथंङ्कर और बुद्ध मूलतः व्यक्ति के सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास के परिचायक हैं । इन दोनों अवधारणाओं में व्यक्ति को परमात्म स्वरूप एवं बुद्ध - बीज माना गया है और यह बताया गया है कि व्यक्ति अपने आध्यात्मिक विकास के द्वारा उसे प्राप्त भी कर सकता है, जबकि हिन्दू धर्म में व्यक्ति को ईश्वर का अंश माना गया है और उसमें एवं ईश्वर में एक अन्तर या दूरी मान गई है । उसकी भक्तिमार्गी परम्पराएँ स्वामी और दास की अवधारणा 1 १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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