SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन लोक-कल्याण के लिए कार्य करना श्रेयस्कर समझा और सन्देश दिया कि भिक्षुओं ! बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, लोक की अनुकम्पा के लिए तथा देव और मनुष्यों के सुख के लिए परिचारण करते रहो । जहाँ तक हिन्दू धर्म में अवतार को अवधारणा का प्रश्न है, अवतार शब्द का सामान्य अर्थ होता है— नीचे उतरने वाला | किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में अवतार का अर्थ है - दैवीय शक्ति का दिव्य लोक से भूतल पर उतरना । हिन्दू धर्म में " अवतार " शब्द का प्रयोग आसुरी शक्तियों के विनाश, साधुजनों के रक्षण एवं धर्म स्थापनार्थ ईश्वर के शरीर धारण के अर्थ में किया गया है । ऋग्वेद में प्रयुक्त "अवतार" शब्द का अर्थ विनाश या संकट दूर करने वाला है । सामान्यतया अवतरण का अर्थ विष्णु अर्थात् ईश्वर के अवतरण से है, किन्तु प्रारम्भ में अवतार की अवधारणा का तात्पर्य मुख्यतः इन्द्र तथा प्रजापति के अवतार से था, कालान्तर में वह विष्णु पर आरोपित हो गया । अवतारवाद का प्रारम्भिक परिचय महाभारत और पुराणों में मिलता है । महाभारत में पहले विष्णु के ६ अवतार - वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम और कृष्ण की चर्चा हुई है । पुनः अगले अध्याय में ६ के साथ ४ अवतार - हंस, कूर्म, मत्स्य और कल्कि को मिलाकर १० की संख्या पूरी की गयी है । विष्णुपुराण में दशावतार का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु अग्नि, वराह, नृसिंह, देवीभागवत, हरिवंश, वायु और ब्रह्मपुराणों में १० अवतारों की सूचियाँ कुछ अन्तर के साथ मिलती हैं । भागवत में विष्णु के अवतारों को अनेक सूचियाँ मिलती हैं, जिसमें २४ अवतारों की अवधारणा भी है । विष्णु शब्द को व्युत्पत्ति विश् अर्थात् प्रवेश करना अथवा अश् अर्थात् व्याप्त करना धातु से की गयी 1 ऋग्वेद में विष्णु को सौर देवता कहा गया है और वे सूर्य के ही रूप हैं । कठोपनिषद् में विष्णु को व्यापक या व्यानशील कहा गया है। आचार्य यास्क के अनुसार रश्मियों द्वारा समग्र संसार को व्याप्त करने के कारण सूर्य ही विष्णु नाम से अभिहित हुए हैं । महाभारत, मत्स्य, ब्रह्म और श्रीमद्भागवत में भी सूर्य ही विष्णु के प्रत्यक्ष रूप माने गये हैं । इस विराट् भावना के कारण पुराणों में विष्णु का महत्त्व स्वीकार किया गया है। विष्णु के अवतार की अवधारणा के प्रारम्भिक रूप का दर्शन हमें महाभारत और वाल्मीकि रामायण में होता है । इन दोनों महाकाव्यों में अवतार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy