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________________ २८६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन हैं, जब कि विदेह क्षेत्र में सदैव २० तीर्थकर रहते हैं । जैन धर्म में तीर्थकर मात्र धर्ममार्ग का उपदेष्टा और साधना का आदर्श है। वह केवल मार्ग बताता है, प्रेरणा देता है, किन्तु साधना तो व्यक्ति को स्वयं करनी होती है। जैन धर्म का तीर्थंकर किसी पर कृपा नहीं कर सकता वह मार्गोपदेष्टा है, जो उसके द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलेगा वह अपने साध्य को प्राप्त करेगा। आचारांग के "आणाये मामगं धम्म" अर्थात मेरी आज्ञा में धर्म है का तात्पर्य केवल आदेश के अनुसार आचरण करने से है। तीर्थ• कर भक्त पर कृपा नहीं करते, वे तो मात्र मार्गोपदेष्टा और साधना के आदर्श हैं । श्रीमद् देवचन्द ने कहा है अज कुलगत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ती भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल || __ अर्थात् जिस प्रकार भेड़ों के समूह में पला हुआ सिंह-शावक सिंह को देखकर अपने स्वरूप को पहचान लेता है, उसी प्रकार भक्त भी प्रभु की भक्ति के द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान लेता है । स्व-स्वरूप का बोध तो स्वयं साधक को करना है, उपास्य तो वहाँ निमित्त मात्र है। जैन धर्म में कृपा के स्थान पर पुरुषार्थ को महत्त्व दिया गया है। उसका तीर्थकर तो वीतराग है, अतः उसके प्रसन्न या अप्रसन्न होने का कोई प्रश्न हो नहीं उठता । इस प्रकार जेन धर्म में कृपा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। व्यक्ति को अपने कृत कर्मों के फल का भोग भी अवश्य करना है और अपने पुरुषार्थ से ही अपना आध्यात्मिक विकास करना है। अतः कृपा नहीं, पुरुषार्थ ही जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है और उसका तीथंकर एक उदासीन मार्गदर्शक मात्र है, जो अपने भक्त के लिए कुछ नहीं करता। बौद्ध धर्म में बुद्ध को धर्मचक्र का प्रवर्तक तथा धर्म का शास्ता कहा गया है । मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय तथा कथावत्थु में बुद्ध को अनुत्पन्न मार्ग का प्रवर्तक, मार्ग-द्रष्टा एवं मार्ग को जानने वाला कहा गया है । बुद्ध को श्रमण, बाह्मण, वेदज्ञ, भिषक, निर्मल, विमल, ज्ञानी, विमुक्त आदि नामों से भी पुकारा गया है । बुद्ध शब्द का अर्थ है-जागृत । बौद्ध धर्म में भी प्रत्येक प्राणो वोर्य, प्रज्ञा और पुरुषार्थ द्वारा बुद्धत्व को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक प्राणो बुद्ध-बीज है और बुद्धत्व को क्षमता से युक्त है । . गौतम भी अपने पुरुषार्थ से हो सम्यक्-ज्ञान प्राप्त कर "भगवान् बुद्ध" .या “सम्यक संबुद्ध" बने । थेरवाद के अनुसार वे ज्ञान और प्रज्ञा के क्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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