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________________ उपसंहार : २८५ धर्म का सारथी कहा गया है । इस प्रकार जैन धर्म में साधना का केन्द्र -- बिन्दु तीर्थंकर है। तीर्थंकर शब्द "तीर्थ" से बना है। तीर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा-घाट या नदी का तीर, जैन धर्म में धर्मशासन एवं चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा गया है । इसी आधार पर संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाले, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले अथवा श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका - इस चतुर्विध संघ के संस्थापक को तीर्थंकर कहा गया है । तीर्थंकरत्व की प्राप्ति व्यक्ति की उच्च आध्यात्मिक साधना का परिणाम है । समवायांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी जोव तप साधना के द्वारा तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन कर तीर्थंकर बन सकता है । सामान्यतया तीर्थंकर और अरिहन्त दोनों को एक ही माना जाता है, परन्तु कुछ जैनाचार्यों ने इनमें अन्तर किया है। जैन धर्म में जीवन-मुक्त अवस्था के दो भेद हैं- प्रथम वे, जिनके विशेष पुण्योदय के कारण गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य एवं निर्वाण कल्याणक (महोत्सव) मनाये जाते हैं, तीर्थंकर कहलाते हैं; दूसरे वे, जिनके ऐसे महोत्सव नहीं मनाये जाते, अर्हत् या सामान्य- केवली कहे जाते हैं । अर्हत् (सामान्य - केवली ) और तीर्थंकर आध्यात्मिक श्रेष्ठता से समान होते हैं, अन्तर मात्र इतना है कि सामान्य- केवली स्वयम् अपनी मुक्ति का लक्ष्य लेकर साधना मार्ग में प्रवेश करता है, जबकि तीर्थंकर धर्म-तीर्थ की स्थापना का लक्ष्य लेकर आते हैं और संसार सागर से स्वयं पार होने के साथ-साथ दूसरों को भी पार कराते हैं । इस प्रकार स्वहित और लोकहित की दृष्टि से ही इनमें अन्तर है । सामान्य केवली की अपेक्षा तीर्थंकर आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। लोक-कल्याण ही उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। जैन धर्म में प्रत्येक बुद्ध और सामान्य- केवली दोनों ही आत्म-कल्याण का आदर्श लेकर चलते हैं, दोनों में मात्र अन्तर यह है कि प्रत्येक बुद्ध किसी निमित्त से स्वयं वैराग्य को प्राप्त कर कैवल्य और निर्वाण लाभ प्राप्त करते हैं, जबकि सामान्यकेवली किसी उपदेश से साधना मार्ग में प्रवृत्त होकर अध्यात्म पूर्णता को प्राप्त होता है। एक स्वयं सम्बुद्ध है तो दूसरा बुद्ध-बोधित है अर्थात् गुरु के सहारे चलने वाला । " समवायांग" में तोर्थंकर के ३४ विशिष्ट गुणों का विवेचन है। श्वेतांबर आगम " ज्ञाताधर्मकथा" में तीर्थंकरत्व प्राप्त करने के बीस कारण बतलाये गये हैं, जबकि दिगम्बर साहित्य में १६ कारण बतलाये गये हैं । जैन मान्यता के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणा और उत्सर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थंकर होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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