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तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार को अवधारणा : तुलनात्मक अध्ययन : २७३ दायी है, तु अपने बन्धनों को तोड और हमारे समान हो जा। अवतारवाद की अवधारणा मनुष्य को ईश्वरीय इच्छा या ईश्वरीय लीला के एक पात्र से अधिक कुछ नहीं रहने देती, उसके अनुसार व्यक्ति का उद्धार केवल ईश्वरीय कृपा पर निर्भर है। वह स्वयं ईश्वरीय इच्छा का एक यन्त्र है जैसा कि रामचरितमानस में कहा गया है
"होई हैं वही जो रामरचि राखा ।
को करि तरक बढ़ावे साखा ।।" अथवा "उमा दारु योशित की नाहीं।
___ सबहि नचावत राम गोसाईं।" अर्थात् जो भी कुछ होना है वह ईश्वरीय इच्छा के अधीन है । व्यक्ति का कार्य केवल उसकी भक्ति करना है। ईश्वरवाद या अवतारवाद में व्यक्ति सदैव ही भक्त बना रहेगा, वह भगवान् का दर्जा कभी प्राप्त नहीं कर सकता। अवतार भक्त को यह सान्त्वना देता है कि मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। किन्तु वह व्यक्ति को कभी यह नहीं कहता कि मैं तुझे अपने समान बनाऊँगा। अवतारवाद में उपास्यउपासक, स्वामी-सेवक का भाव सदैव बना रहता है, चाहे वह मुक्ति की दशा ही क्यों न हो । जबकि तीर्थङ्कर या बुद्ध की अवधारणा इससे भिन्न है। तीर्थङ्कर का सन्देश होता है कि तुम में भी वही परमात्म तत्त्व अथवा जिनत्व सोया पड़ा है, उठो, प्रयत्न करो और यदि तुम्हारे प्रयत्न सम्यग् दिशा में होंगे, तो तुम एक दिन स्वयं हमारे समान बन जाओगे । तीर्थङ्करत्व की अवधारणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता कुठित नहीं होती बल्कि स्वतन्त्र होने के लिए आह्वान किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति की अवस्था में महावीर की आत्मा और एक सामान्य साधक की आत्मा में कोई अन्तर नहीं होता। सभी मुक्त जीव समकक्ष हैं उनमें न कोई छोटा न बड़ा, न कोई स्वामी न सेवक । अवतारवाद की शिक्षा में दीनता की शिक्षा है, वहाँ याचकता का भाव है जबकि तीर्थकरत्व की शिक्षा वीरत्व की शिक्षा है, वह याचना नहीं बल्कि अधिकार की बात कहती है । वह मांगने से भी नहीं मिलती, उसे स्वयं के पुरुषार्थ के द्वारा पाना होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अवतारवाद का दर्शन परतन्त्रता का दर्शन है। अवतारवाद आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर भी एक राजतन्त्र की कल्पना करता है जबकि तीर्थंकरत्व का दर्शन एक प्रजातन्त्र की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। तीर्थङ्करत्व के
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